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विषय नं. 14 - मूर्ति पूजा के मनाई के श्लोक



अध्याय नं. 12 ,श्लोक नं. 1
श्लोक

अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥

अर्जुन उवाच,
एवम् सतत युक्ताः ये भक्ताः त्वाम् पर्युपासते। ये च अपि अक्षरम् अव्यक्तम् तेषाम् के योगवित् तमाः ।। १ ।।

शब्दार्थ

(अर्जुन उवाच) अर्जुन ने कहा, (ये) (हे ईश्वर) वह (जो) (सतत) सदैव (त्वाम्) आपकी (पर्युपासते ) प्रार्थना में (भक्त) लगा रहता है (एवम्) (किन्तु) इस तरह (कि वह आपको कोई मूर्ति में या आकार वाला मानता है) (च) और (ये) वह जो (अपि) नि:संदेह (आपको) (अक्षरम) अविनाशी (अव्यक्तम्) न दिखाई देने वाला मानता है। (तेषाम् ) उन (दोनों में) (के) कौन (योग) (आपसे) जुड़ने वाली प्रार्थना के (वित्) ज्ञान में (तमाः) अज्ञान (से) है।

अनुवाद

अर्जुन ने कहा, “(हे ईश्वर) वह (जो) सदैव आपकी प्रार्थना में लगा रहता है। (किन्तु) इस तरह ( कि वह आपको कोई मूर्ति में या आकार वाला मानता है)। और वह जो नि:संदेह (आपको) अविनाशी, न दिखाई देने वाला मानता है। उन (दोनों में) कौन (आपसे) जुड़ने वाली प्रार्थना के ज्ञान से अज्ञान है।”

नोट

नालन्दा विशाल शब्द सागर कोश में तम और वित के निम्नलिखित अर्थ बताए हैं। तम= अन्धकार, अंधेरा, पाप, अज्ञान (पेज नं. ४९९ ) वित = जानकार, ज्ञाता, चतुर, निपुण (पेज नं. १२६४)