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विषय नं. 32 - प्रार्थना



अध्याय नं. 4 ,श्लोक नं. 26
श्लोक

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति । शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥26॥

श्रोत्र आदीनि इन्द्रियाणि अन्येसयम् अग्निषु जुह्यति । शब्द - आदीन् विषयान् अन्येइन्द्रिय अग्नुिषु जुह्यति ।। २६ ।।

शब्दार्थ

(अन्ये) कुछ लोग (इन्द्रियाणि) अपने आनंद लेने वाले अंगो को (संयम) नियंत्रित करना । (अग्निषु ) सबसे महान कर्म मानते हैं। (श्रोत्र आद्रिन) जैसे सुनने का कर्म (जुह्यति) और उसकी आहुती देते हैं (वह ऐसी बातें नहीं सुनते जो नहीं सुनना चाहिए) (अन्ये) दुसरे लोग (शब्द आदीन) ईश्वर के नाम के जाप को (अग्निषु) सब से महान मानते हैं। (इन्द्रिय) आनंद करने की इच्छा और (विषान्) आनंद करने की वस्तुओं की (जह्वति) आहुति देते हैं (और ईश्वर के नामों का जाप करते रहते हैं)

अनुवाद

कुछ लोग अपने आनंद लेने वाले अंगो को नियंत्रित करने को सबसे महान कर्म मानते हैं। जैसे सुनने का कर्म, और उसकी आहुती देते हैं। (वह ऐसी बातें नही सुनते जो नहीं सुनना चाहिए ) । दुसरे लोग ईश्वर के नाम के जाप को सबसे महान मानते है। और आनंद करने की इच्छा और आनंद करने की वस्तुओं की आहुति देते हैं। (और ईश्वर के नामों का जाप करते रहते हैं)