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विषय नं. 33 - पथभ्रष्ट होने का कारण



अध्याय नं. 3 ,श्लोक नं. 16
श्लोक

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥16॥

एवम् प्रवर्तितम् चक्रम् न अनुवर्तयति इह यः । अघ आयुः इन्द्रिय आराम: मोघम् पार्थ सः जीवति ।। १६ ।।

शब्दार्थ

(एवम्) इस प्रकार (पार्थ) हे अर्जुन (यः) जो व्यक्ति (इह) इस संसार में (प्रवर्तितम्) वेदों के निश्चित किए हुए नियमां के अनुसार (चक्रम् ) अपने जीवन के दिन रात को (अनुवर्तयति) सुनिश्चित नही करता (अघ-आयु) उसका जीवन पापों से भर जाता है। (सः) (कारण के) वह (जीवति) इस उद्देश से जिवित रहता है की (इन्द्रिय आराम) अपने इन्द्रियो से आनंद लेने में (मोहम) डूबा रहे।

अनुवाद

इस प्रकार, हे अर्जुन, जो व्यक्ति इस संसार में वेदों के निश्चित किए हुए नियमों के अनुसार अपने जीवन के दिन रात को सुनिश्चित नहीं करता, उसका जीवन पापों से भर जाता है। (कारण के) वह इस उद्देश्य से जीवित रहता है कि अपने इन्द्रियो से आनंद लेने में डूबा रहे।