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विषय नं. 5 - ईश्वर की प्रशंसा



अध्याय नं. 11 ,श्लोक नं. 18
श्लोक

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||18||

त्वम् अक्षरम् परमम् वेदितव्यम् त्वम् अस्य विश्वस्य परम् निधानम् । त्वम् अव्ययः शाश्वत-धर्म-गोप्ता सनातनः त्वम्
पुरुषः मतः मे ।। १८ ।।

शब्दार्थ

(एराम्) (हे ईश्वर) आप (अक्षरम्) अविनाशी हैं (परमम् ) सबसे महान हैं (और) (वेदितव्यम्) जानने के योग्य है (त्वम्) (हे ईश्वर) आप ही (अस्य) इस (विश्वस्य) ब्रह्मांड के (परम् विधानम्) सबसे महान आश्रय हैं। (त्वम्) (हे ईश्वर) आप (अव्ययः) हमेशा रहने वाले हैं (शाश्वत-धर्म) शाश्वत-धर्म (सनातन धर्म के) (गोप्ता) रक्षक हैं। (पुरुषः) आपका व्यक्तित्व (सनातन) सनातन ( न बदलने वाला है) (मतः मे) ऐसी मेरी श्रद्धा है।

अनुवाद

हे ईश्वर आप अविनाशी हैं, सबसे महान हैं, (और) जानने के योग्य हैं। (हे ईश्वर) आप ही इस ब्रह्मांड के सबसे महान आश्रय हैं। (हे ईश्वर) आप हमेशा रहने वाले हैं। शाश्वत धर्म (सनातन धर्म के) रक्षक हैं। आपका व्यक्तित्व सनातन (न बदलने वाला है), ऐसी मेरी श्रद्धा है।

नोट

वह समुदाय जिनको अवतरित ग्रंथ दिए गये थे (अर्थात इसाई और यहुदी) और शिर्क (संगम) करने वाले, यह लोग ईश्वर को मानने वाले नहीं थे जब तक उनके पास स्पष्ट प्रमाण न आ जाता । अर्थात ईश्वर के पैगंबर जो पवित्र (ग्रंथ के) पन्ने (पेज) पढ़ते हैं। जिनमें (स्पष्ट) आयातें (ईश्वर के आदेश) लिखे हैं। (और जब पैगंबर और स्पष्ट प्रमाण अर्थात ईश्वर के आदेश आ गए तो इसके बाद) वह समुदाय जिनको अवतरित ग्रंथ दिए गए हैं, वह विवाद में (फूट में) पड़ गऐ। (ईश्वर ने उनको) यही आदेश दिया था कि नि:स्वार्थ होकर ईश्वर की प्रार्थना करो और एकाग्र होकर नमाज़ पढ़ो और जकात (दान) दें। और यही शाश्वत (सनातन) धर्म है। (पवित्र कुरआन ९८:१-५) (नोट: आयत में 'दीने काइयमा' लिखा है। जिसका अर्थ है, वह सच्चा धर्म जो पहले से था, है और सदा रहेगा। इसलिए हमने इसका अनुवाद शाश्वत या सनातन धर्म किया है।)