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विषय नं. 54 - धर्म ज्ञान के प्रचार का महत्व



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 67
श्लोक

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥67॥

इदम् ते न अतपस्काय न अभक्ताय कदाचन । न च अशुश्रूषवे वाच्यम् न च माम् यः अभ्यसूयति ।।६७ ।।

शब्दार्थ

(अतपस्काय) जो व्यक्ती अपने आपको वश में (न) नहीं रखता (अभक्ताय) जो प्रार्थना नही करता (च) और (अशुश्रूषवे) जो ( ईश्वर का आदेश) सुनने की रुचि (न) नहीं रखता (ते) (ऐसे लोगों को) तुम्हारे द्वारा (इदम्) यह (ईश्वर की वाणी) (कदाचन) कभी भी (वाच्यम्) कही (न) न (जाए) (च) और (य) जो (व्यक्ति) (माम्) मुझसे (अभ्यसूयति) द्वेष रखता है (न) न (ईश्वर की वाणी उनसे कही जाए ) ।

अनुवाद

जो व्यक्ति अपने आपको वश में नहीं रखता, जो प्रार्थना नहीं करता, और जो ईश्वर का आदेश सुनने की रुचि नहीं रखता, ऐसे लोगों को तुम्हारे द्वारा यह

नोट

ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा, “(कुरआन) वह ग्रंथ यही है, जिसमें कोई संदेह नहीं, मार्गदर्शन है (ईश्वर से) डर रखने वालों के लिए।" (सूरे अल बकरा-२, आयत २) अर्थात कुरआन सब पढ़ेंगे किन्तु इससे मार्गदर्शन वही प्राप्त करेंगे जो ईश्वर से डरते हैं। इसी प्रकार भगवद् गीता के लिए श्लोक नं. १८.६७ में कहा गया कि जिसका उसकी इच्छाओं पर वश नहीं और जो ईश्वर की भक्ति नहीं करता उसे यह ग्रंथ न सुनाई जाए। क्योंकि वह इससे कुछ नहीं सीखेगा। यह समय का नष्ट करना है।