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विषय नं. 9 - ईश्वर की कृपा का महत्व:



अध्याय नं. 9 ,श्लोक नं. 34
श्लोक

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥34॥

मत- मनाः भव मत् भक्तः मत् याजी माम् नमस्कुरु । माम् एव एष्यसि युक्तत्वा एवम् आत्मानम् मत परायणः ।। ३४।।

शब्दार्थ

(मत्-मना) मुझे अपने मन में रखो (मत भक्त) मेरे भक्त (भाव) बन जाओ (मत् याजी) मेरी प्रार्थना करो (मत नमस्कुरु) मुझे नमस्कार (सजदा) करो (आत्मानम्) अपने आपको (युक्तत्वा) (मेरी प्रार्थना में) व्यस्त रखो (एवं ) नि:संदेह ( एवम् ) इस तरह (मत परायण) मेरे सहारे (माम्) (तुम) मुझे (एष्यसि ) पा लोगे।

अनुवाद

मुझे अपने मन में रखो। मेरे भक्त बन जाओ । मेरी प्रार्थना करो। मुझे नमस्कार (सजदा) करो। अपने आपको मेरी प्रार्थना में व्यस्त रखो। नि:संदेह, इस तरह मेरे सहारे तुम मुझे पा लोगे।

नोट

1. श्लोक नं. १८.५६ का अनुवाद स्वामी राम सुखदास महाराज ने साधक संजीवनी में इस प्रकार किया है। (अपि) किन्तु (सच तो यह है कि) (सर्व) सभी (कर्माणि) सत्कर्मों को (मत) मेरे (व्यपाश्रयः) सहारे (कुर्वाण) करने वाला (मत) मेरी (प्रसादत) कृपादृष्टि (से ही) (शाश्वतम्) (स्वर्ग का) सदैव स्थित रहने वाला (अव्ययम्) अविनाशी (पदम्) स्थान (अवाप्नोति) पा सकता है। किन्तु (सच तो यह है कि) सभी सत्कर्मों को मेरे सहारे करने वाला मेरी कृपादृष्टि (से ही) (स्वर्ग का) सदैव स्थित रहने वाला अविनाशी स्थान पा सकता है। यह श्लोक भगवद गीता का सबसे महत्त्वपूर्ण श्लोक है। और (मत प्रसादात) अर्थात “मेरी कृपा से” यह शब्द ही गीता का सार है। इसका अर्थ है मनुष्य चाहे जितनी भक्ति कर ले, प्रार्थना और पुण्य के कार्य कर ले, किन्तु स्वर्ग केवल ईश्वर की कृपा से ही मिलेगा। इस कारण मनुष्य का लक्ष्य केवल ईश्वर को प्रसन्न करना हो । पुण्य कमाना न हो। इसी कारण कहा जाता है, “कर्म कर, फल की चिन्ता न कर"। इसको अच्छी तरह समझने के लिए नोट नं. N-5 पढ़िए। श्लोक नं. ९.३४ में ऐसी ही शिक्षा है।2. ईश्वर ने पैगम्बर मुहम्मद साहब से कहा कि, “कह दो, (मेरे बन्दों से कि) ऐ मेरे बन्दों जिन लोगों ने पाप किया है, वे ईश्वर की दयालुता से निराश न हो। निस्संदेह ईश्वर सारे ही पापों को क्षमा कर देता है। निश्चय ही वह बड़ा क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है।ईश्वर की ओर ध्यान लगाओ और उसके आज्ञाकारी बन जाओ, इससे पहले कि तुम पर अज़ाब (ईश्वर का प्रकोप) आ जाए। फिर तुम्हारी सहायता न की जाएगी। (पवित्र कुरआन, अज़- जूमर- ३९, आयत-५३-५४)