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विषय नं. 9 - ईश्वर की कृपा का महत्व:



अध्याय नं. 10 ,श्लोक नं. 11
श्लोक

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥11॥

तेषाम् एव अनुकम्पा अर्थम् अहम् अज्ञान जम् तमः । नाशयामि आत्म-भाव स्थः ज्ञान दीपेन भास्वता ।।११।।

शब्दार्थ

(ए वं) निःसंदेह (तेषाम् ) उन (पवित्र व्यक्तियों) पर (अनुकम्पा- अर्थम) अपना विशेष कृपा करने के लिए (अहम) मैं (आत्म भाव) उनके हृदय के अन्दर (ज्ञान दीपेन) ज्ञान का दीपन (स्थः) स्थापित कर देता हूँ। (भास्वता) जिसके प्रकाश में (तम्) जो अंधकार (अज्ञान-जम्) अज्ञानता के कारण हृदय में जन्म लेते हैं। (नाशयामि) वह नष्ट हो जाते हैं।

अनुवाद

नि:संदेह, उन पवित्र व्यक्तियों पर अपना विशेष कृपा करने के लिए मैं उनके हृदय के अन्दर ज्ञान का दीपन स्थापित कर देता हूँ। जिसके प्रकाश में जो अंधकार अज्ञानता के कारण हृदय में जन्म लेते हैं वह नष्ट हो जाते हैं।

नोट

ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा (हे पैगंबर) तुम जिसे चाहो मार्ग पर नहीं ला सकते, परन्तु ईश्वर जिसे चाहता है मार्ग पर लाता है। और वह मार्ग पाने वालों को भली-भांति जानता है। (सुरे-अल कसस (२८) आयत (५६)) (अर्थात, जो ईश्वर के सत्य मार्ग पर चलना चाहता है। ईश्वर उसे जानता है और उसे सत्य के मार्ग पर चलने के लिए बुद्धियोगम देता है। पैगम्बर चाहें की समाज का कोई धनवान या शक्तिशाली व्यक्ति पैगम्बर का धर्म ग्रहण कर ले तो ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि बुद्धियोगम (या ईमान) ईश्वर के हाथ में है और यह ईश्वर उसी को देता है जो मन से धर्म का अनुसरण करना चाहता है।)