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विषय नं. 9 - ईश्वर की कृपा का महत्व:



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 66
श्लोक

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥66॥

सर्व धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज अहम् त्वाम् सर्व पापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।। ६६ ।।

शब्दार्थ

ईश्वर की वाणी कभी भी कही न जाए और जो व्यक्ति मुझ से द्वेष रखता है न ईश्वर की वाणी उनसे कही जाए। (सर्व) सभी (धर्मान्) धर्मों को (परित्यज्य) छोड़ कर (मामू) मुझ (एकम्) एक ईश्वर की (शरणम्) शरण में (व्रज) आ जाओ (शुच) चिंता (मा) ना करो (अहम) मैं (त्वाम) तुम्हारे (सर्व) सारे (पापेभ्य) पापों को (मोक्षयिष्यामि) क्षमा कर दूंगा।

अनुवाद

सभी धर्मों को छोड़ कर मुझ एक ईश्वर की शरण में आ जाओ। चिंता ना करो, मैं तुम्हारे सारे पापों को क्षमा कर दूंगा।

नोट

ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा कि, शुरु में सब लोग एक ही तरीके (धर्म) पर थे। (फिर यह हालत बाकी न रही और विभेद प्रकट हुए) तब ईश्वर ने पैगम्बर भेजे जो सीधे मार्ग पर चलने पर खुशख़बरी देने वाले और टेढ़ी चाल के परिणामों से डराने वाले थे, और उनके साथ सत्य पर आधारित पुस्तक उतारी ताकि सत्य के विषय में लोगों के बीच जो विभेद उत्पन्न हो गए थे, उनका फैसला करे। (और इन विभेदों को प्रकट होने का कारण यह न था कि शुरुआत में लोगों को सत्य का ज्ञान कराया ही नहीं गया था। नहीं,) विभेद उन लोगों ने किया, जिन्हें सत्य का ज्ञान दिया जा चुका था। उन्होंने स्पष्ट आदेश पा लेने के बाद केवल अपनी हठ (ज़िंद) के कारण सत्य को छोड़कर विभिन्न रास्ते निकाले। अंत: जिन लोगों ने पैगम्बरों को माना, उन्हें ईश्वर ने अपनी अनुमति से उस सत्य का रास्ता दिखा दिया, जिसमें लोगों ने विभेद किया था। ईश्वर जिसे चाहता है, सीधा मार्ग दिखा देता है। (सूरे अल बकरा- २, आयत २१३)