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विषय नं. 12 - मनुष्य के गुण जो ईश्वर की महानता दर्शाते है



अध्याय नं. 13 ,श्लोक नं. 11
श्लोक

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥11॥

मयि च अनन्य-योगेन भक्तिः अव्यभिचारिणी । विविक्त देश सेवित्वम् अरतिः जन संसदि ॥११॥

शब्दार्थ

(च) और (अव्यभिचारिणी) निरंतर (मयि) मेरी (अनन्य-योगेन) बिना संगम के (भक्तिः) प्रार्थना करना (विविक्त देश) एकांत स्थान ( पर रहने की) (सेवितम्) इच्छा रखना (जन संसदि) आम लोगों (जनसाधारण) के समूह से (अरतिः) दूर रहना।

अनुवाद

और निरंतर मेरी बिना संगम (शिर्क) के प्रार्थना करना । एकांत स्थान पर रहने की) इच्छा रखना। आम लोगों के समूह से दूर रहना ।