Home Chapters About



विषय नं. 23 - रूह का वर्णने



अध्याय नं. 6 ,श्लोक नं. 5
श्लोक

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।5।।

उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् ।
आत्म एव हि आत्मनः बन्धुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः ।।५।।

शब्दार्थ

(हि) नि:संदेह (आत्मानम्) मनुष्य को चाहिए कि (आत्मनः) अपनी आत्मा को (उद्धाते) ऊपर उठाए ( पवित्र करें) (आत्मानम्) मनुष्य को चाहिए कि (अवसादेयते) (अपनी आत्मा को) नीचे की तरफ (न) न ले जाए (अपवित्र न करे)। (आत्मा) आत्मा (आत्मना) मनुष्य की (बन्धु) मित्र है (अत्मना ) और आत्मा (ही) (आत्मना) मनुष्य की (रिपुः) शत्रु भी है।

अनुवाद

निःसंदेह, मनुष्य को चाहिए की अपनी आत्मा को ऊपर उठाए (पवित्र करें)। मनुष्य को चाहिए कि (अपनी आत्मा को) नीचे की तरफ न ले जाए (अपवित्र न करे ) । आत्मा मनुष्य की मित्र है, और आत्मा (ही) मनुष्य की शत्रु भी है।

नोट

यहाँ आत्मा का वर्णन है। आत्मा और रुह में अन्तर है। रुह सदैव पवित्र रहती है। जबकि आत्मा की स्थिती मनुष्य के कर्मों के अनुसार होती है। नोट नं. N-2 में इसका विस्तार से वर्णन है ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा, सफल हो गया (वह) जिसने आत्मा को पवित्र किया। और असफल हुआ जिसने उसे दोषित किया। (सुरे अश-शम्स (९१) आयत-९-१०