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विषय नं. 26 - स्वर्ग के लिए योग्याता



अध्याय नं. 4 ,श्लोक नं. 24
श्लोक

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥24॥

ब्रह्म अर्पणम ब्रह्म हविः ब्रह्म अन्नौ ब्रह्मणा हुतम् ब्रह्म एव तेन गन्तव्यम् ब्रह्म कर्म समाधिना ।। २४ ।।

शब्दार्थ

( ब्रह्म अर्पणम्) (वह जिसने अपना जीवन) ईश्वर को अर्पण कर दिया है। (ब्रह्म हविः) (वह जो सब कुछ केवल) ईश्वर से मांगता है। (ब्रह्म अग्नौ) (वह जो ईश्वर को) आदि, सबसे पहला और महान (मानता ( समाधिना) वह जिसकी साधना केवल (ब्रह्म) ईश्वर के लिए होती है। (कर्म) (वह जो) कर्म (केवल) (ब्रह्मणा हेतुम) ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए करता है। (एव) नि:संदेह (इन कर्मों के कारण) (तेन) उस (ईश्वर की कृपा से) (ब्रह्म) (वह) ईश्वर (के स्वर्ग को) (गन्तव्यम्) प्राप्त करने के योग्य हो जाता है।

अनुवाद

(वह जिसने अपना जीवन) ईश्वर को अर्पण कर दिया है। (वह जो सब कुछ केवल) ईश्वर से मांगता है। (वह जो ईश्वर को) 'आदि'। सबसे पहला और महान मानता है। वह जिसकी साधना केवल ईश्वर के लिए होती है। (वह जो) कर्म (केवल) ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए करता है। नि:संदेह ( इन कर्मों के कारण) उस (ईश्वर की कृपा से) (वह) ईश्वर (के स्वर्ग को) प्राप्त करने के योग्य हो जाता है। अनेक प्रकार के प्रार्थना की पद्धति