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विषय नं. 26 - स्वर्ग के लिए योग्याता



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 55
श्लोक

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः । ततो तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ 55 ॥

भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् यः च अस्मि तत्त्वतः । ततः माम् तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तत-अनन्तरम् ||५५||

शब्दार्थ

तत) वह (भक्त) (तत्त्वत:) मेरी सच्चाई को (अर्थात) (यावान्) मैं जैसा हूँ (च) और (य:) जो (अस्मि) हूँ (भक्त्या) (मेरी) प्रार्थना से ही (अभिजानाति) जान लेता हैं। (माम) (और फिर) मेरी (तत्वतः) सच्चाई (तत्व) को (ज्ञात्वा) जानने वाला (तत) वह (भक्त) (अनन्तरम्) (मेरे और उसके) बीच में और किसी को लाए बिना (विशते) (मुझ तक) पहुंचता है।

अनुवाद

वह (भक्त) मेरी सच्चाई को अर्थात मैं जैसा हूँ और (या) जो हूँ मेरी प्रार्थना से ही जान लेता है। और फिर मेरी सच्चाई को जानने वाला वह (भक्त) (मेरे और उसके) बीच में और किसी को लाए बिना (मुझ तक) पहुंचता है।