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विषय नं. 31 - भाग्य



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 59
श्लोक

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे । मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥59 ||

यत् अहङ्कारम् आश्रित्य न योत्स्ये इति मन्यसे । मिथ्या एष व्यवसायः ते प्रकृतिः त्वाम् नियोक्ष्यति ।। ५९ ।।

शब्दार्थ

(अहङ्कारम्) अहंकार (आश्रित्य) के सहारे (के कारण) (यत) यदि (तुम) (इति) इस तरह (मन्यसे) सोच रहे हो कि (योत्स्ये) (में) युद्ध (न) नहीं (करूंगा) (एष) तो (ते) तुम्हारी (व्यवसाय:) यह प्रतिज्ञा (मिथ्या) गलत है (प्रकृतिः) (ईश्वर का रचा हुआ) भाग्य (त्वाम्) तुम्हें (नियोक्ष्यति) (इस युद्ध में) झोंक देगा।

अनुवाद

अहंकार के सहारे (के कारण) यदि तुम इस तरह सोच रहे हो कि मैं युद्ध नहीं करूंगा तो तुम्हारी यह प्रतिज्ञा गलत है। ईश्वर का रचा हुआ भाग्य तुम्हें इस युद्ध में झोंक देगा।