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विषय नं. 32 - प्रार्थना



अध्याय नं. 6 ,श्लोक नं. 20
श्लोक

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥20॥

यत्र उपरमते चित्तम् निरुद्धम् योग-सेवया । यत्र च एव आत्मना आत्मानम् पश्यन् आत्मनि तुष्यति ।।२०।।

शब्दार्थ

(एवं) नि:संदेह, (आत्मना) मनुष्य (यत्र) जब ( ईश्वर की याद में एकाग्र रहता है) (आत्मनि) (तो) स्वयम् (वह) (आत्मनम) ईश्वर के अस्तित्व का ( पश्यन्) एहसास ( अनुभव) करता है। (तुष्यति) और संतुष्ट हो जाता है। (शान्त हो जाता है) (च) और (यह) (उपरमते) अन्दर की शान्ति की (यत्र) स्थिती (चित्तम् ) और मन का (योग) ईश्वर से जुड़ा होना (निरुद्धम्) बुरे कर्मों से बचने का (सेवया) कारण बनते हैं।

अनुवाद

नि:संदेह, मनुष्य जब ( ईश्वर की याद में एकाग्र रहता है) (तो) स्वयम् (वह) ईश्वर के अस्तित्व का एहसास (अनुभव) करता है और संतुष्ट हो जाता है (शान्त हो जाता है)। और (यह) अन्दर की शान्ति की स्थिती और मन का ईश्वर जुड़ा होना बुरे कर्मों से बचने का कारण बनते से हैं।