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विषय नं. 32 - प्रार्थना



अध्याय नं. 6 ,श्लोक नं. 21
श्लोक

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥21॥

सुखम् आत्यन्ति कम् यत् तत् बुद्धिः ग्राहम् अतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न च एव अयम् स्थितः चलति तत्वतः ।।२१।।

शब्दार्थ

(ए वं) नि:संदेह, (तत्) वह भक्त (यत्) जो (अतीन्द्रयम् ) समझ बूझकर (बुद्धि) इच्छाओं से दूर (ग्राह्यम्) हो जाता है (आत्यन्तिकम् ) और सबसे श्रेष्ठ (सुखम् ) सुख को (वेत्ति) जान जाता है, (यत्र) तो फिर वह (अयम्) (एकाग्रता के द्वारा) उस (स्थितः) ईश्वर की याद को स्थित करने से (च) और (तत्त्वतः) ईश्वर की याद में लीन होने और सच्चाई का आभास करने से (न) कभी भी नहीं (चलति) हटता।

अनुवाद

नि:संदेह, वह भक्त जो समझ बूझकर इच्छाओं से दर हो जाता है और सबसे श्रेष्ठ सुख को जान जाता है तो फिर वह (एकाग्रता के द्वारा) उस ईश्वर की याद को स्थित करने से और ईश्वर की याद में लीन होने और सच्चाई का आभास करने से कभी भी नहीं हटता।