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विषय नं. 33 - पथभ्रष्ट होने का कारण



अध्याय नं. 3 ,श्लोक नं. 34
श्लोक

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥34॥

इंन्द्रियस्य इन्द्रियस्य- अर्थे राग द्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोः न वशम् आगच्छेत् तौ हि अस्य परिपन्थिनौ ।। ३४ ।।

शब्दार्थ

(इन्द्रियस्य) आनंद लेने की इच्छा का (इन्द्रियस्य अर्थे) आनंद का अनुभव देने वाले वस्तुओं से (राग) मित्रता (या) (द्वैषौ) (घृणा) नफरत (का) (व्यवस्थितौ) (सम्बंध) स्थित होता है। (तयौ) इन दोनों (भावनाओं के) ( वशम) वश में (न) नहीं (आगच्छेत्) आना चाहीए (हि) निसंदेह (तौ) यही (भावनाएं) (परिपन्थिनौ) रास्ते की रुकावट (अस्य) है।

अनुवाद

आनंद लेने की इच्छा का आनंद का अनुभव देने वाले वस्तुओं से मित्रता (या) नफरत (घृणा का) (सम्बंध) होता है। इन दोनों (भावनाओं के) वश में नहीं आना चाहीए। निसंदेह यही (भावनाएं) रास्ते की रुकावट है। (अर्थात प्रेम या घृणा की भावना से प्रेरीत होकर मनुष्य ईश्वर के आदेश के उलट कर्म करता है।)