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विषय नं. 42 - सुख शांति का मार्ग्य



अध्याय नं. 4 ,श्लोक नं. 30
श्लोक

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति । सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ||30||

अपरे नियत आहाराः प्राणेषु जुह्यति । सर्वे अपि एते यज्ञ-विदः यज्ञ-क्षपित कल्मषाः ।।३०।।

शब्दार्थ

(अपरे) कुछ लोग (अपाने) बाहर निकलने वाली श्वास को ( प्राणम्) अंदर आने वाली श्वास में (प्राणे) और अंदर आने वाली श्वास को (अपानम्) बाहर जाने वाली श्वास में करके (जुहति) ईश्वर को अर्पित करते हैं। (तथा ) इसी तरह (अपरे) कुछ लोग (प्राण) अंदर आने वाली श्वास (अपानम्) और बाहर जाने वाली श्वास की ( गति) गति को (रुद्धवा) रोककर (प्राण) अंदर आने वाली श्वास को ( आयाम) लम्बा करके (परायणाः) एक ईश्वर में एकाग्रता की परिस्थिती में आ जाते है। (अपरे) और कुछ लोग (नियत) ईश्वरीय नियमों के अनुसार (आहार) भोजन लेकर ( प्राणान ) भीतर आने वाली श्वास को (प्राणेषु ) भीतर आने वाली श्वास में रखकर (जुह्यति) ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ईश्वर को अर्पित करते हैं। (अपि) नि:संदेह (एते) यह (सर्वे) सब लोग ( यज्ञ विदः) ईश्वर की उन प्रार्थनाओं को जानते थे जिससे ईश्वर प्रसन्न होता है। ( यज्ञ क्षपित) उन्होंने वह प्रार्थनाएं की, जिसके कारण (कल्मषाः) उन्हें पापों से मुक्ति मिली।

अनुवाद

कुछ लोग बाहर निकलने वाली श्वास को अंदर आने वाली श्वास में, और अंदर आने वाली श्वास को बाहर जाने वाली श्वास में करके ईश्वर को अर्पित करते हैं। इसी तरह कुछ लोग अंदर आने वाली श्वास और बाहर जाने वाली श्वास की गति को रोककर, अंदर आने वाली श्वास को लम्बा करके एक ईश्वर में एकाग्रता की परिस्थिती में आ जाते हैं। और कुछ लोग ईश्वरीय नियमों के अनुसार भोजन लेकर भीतर आने वाली श्वास को भीतर आने वाली श्वास में रखकर ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ईश्वर को अर्पित करते हैं। नि:संदेह यह सब लोग ईश्वर की उन प्रार्थनाओं को जानते थे जिससे ईश्वर प्रसन्न होता है। उन्होंने वह प्रार्थनाएं की, जिसके कारण उन्हें पापों से मुक्ति मिली।