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विषय नं. 43 - मनुष्य के 3 प्राकार के स्वभाव



अध्याय नं. 14 ,श्लोक नं. 12
श्लोक

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥12॥

लोभः प्रवृत्तिः आरम्भः कर्मणाम् अशमः स्पृहा ।
रजसि एतानि जायन्ते विवृद्धे भरत ऋषभ ।। १२ ।।

शब्दार्थ

(भरत-ऋषभ) हे भारत वंशियों में श्रेष्ठ (अर्जुन) (लोभ:) लालच में (प्रवृत्तिः) वृद्धि (बढ़त) (आरम्भ: कर्मणाम्) व्यापार के काम में व्यस्त रहना । ( अशम:) अशान्ति (स्पृहा) (बेकाबू) इच्छाएँ (ऐतानि) यह सब (जायन्ते) उत्पन्न होते हैं (रजसि) रजो गुण (के) (विवृद्धे) वृद्धि ( बढ़ने से ) ।

अनुवाद

हे भारत वंशियों में श्रेष्ठ (अर्जुन)! लालच में वृद्धि (बढ़त)। व्यापार के काम में व्यस्त रहना, अशान्ति, (बेकाबू) इच्छाएँ। यह सब उत्पन्न होते हैं रजो गुण के बढ़ने से है।