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विषय नं. 43 - मनुष्य के 3 प्राकार के स्वभाव



अध्याय नं. 14 ,श्लोक नं. 19
श्लोक

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥19॥

न अन्यम् गुणेभ्यः कर्तारम् यदा द्रष्टा अनुपश्यति ।
गुणेभ्यः च परम् वेत्ति मत-भावम् सः अधिगच्छति ।।१९।।

शब्दार्थ

(यदा) तब (द्रष्टा) देखने वाले ( यह समझते हैं की) (गुणेभ्य:) प्राकृतिक गुण (अन्यम्) के अतिरिक्त कोई दूसरी चीज़ (कर्तारम्) सारे कर्मों को (न) नहीं (करती तब) (स) वह (अनुपश्यति) सच्चाई को देखता है। (वेत्ति) और जान लेता है कि (परम) महान ईश्वर ने (गुणेभ्य:) इन गुणों को ( उत्पन्न किया और मनुष्य के शरीर से जोड़ दिया है) (च) और (तब वह ) (मत-भावम् ) मुझमें श्रद्धा वाली भावना (अधिगच्छति) पा लेता है।

अनुवाद

तब देखने वाले यह समझते हैं कि प्राकृतिक गुण के अतिरिक्त कोई दूसरी चीज़ सारे कर्मों को नहीं (करती) तब वह सच्चाई को देखता है और जान लेता है कि महान ईश्वर ने इन गुणों को उत्पन्न किया और मनुष्य के शरीर से जोड़ दिया है और ( तब वह ) मुझमें श्रद्धा वाली भावना (स्वभाव) पा लेता है।