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विषय नं. 46 - सज्जन/भले व्यक्ती की गुण



अध्याय नं. 6 ,श्लोक नं. 8
श्लोक

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥8॥

ज्ञान विज्ञान तृप्त आत्मा कूट-स्थ: विजित इन्द्रियः । युक्तः इति उच्यते योगी सम लोष्ट् अश्म् काञ्चनः ।।८।।

शब्दार्थ

(इति) इसी प्रकार ( तृपव आत्मा) जिसका मन संतुष्ट है (विजिय-इन्द्रिया) जिसने अपनी इच्छाओं को वश में कर रखा है। (इमि-विदून) जो दिव्य ज्ञान विज्ञान की शिक्षा पर (कृत - स्या) दृढ़ता से स्थित है। (लोष्ट-अश्म-काच्यन) जिसके लिए मिट्टी का ढेला पत्थर और स्वर्ण (सम) एक जैसे हैं (युत्क योगी) उसे ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ योगी (उच्यते) कहा जाएगा।

अनुवाद

इसी प्रकार जिसका मन संतुष्ट है। जिसने अपनी इच्छाओं को वश में कर रखा है, जो दिव्य ज्ञान विज्ञान की शिक्षा पर दृढ़ता से स्थित है। जिसके लिए मिट्टी का ढेला, पत्थर, और स्वर्ण एक जैसे हैं। उसे ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ योगी कहा जाएगा।