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विषय नं. 46 - सज्जन/भले व्यक्ती की गुण



अध्याय नं. 12 ,श्लोक नं. 16
श्लोक

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥

अनपेक्षः शुचिः दक्षः उदासीनः गत व्यथः ।
सर्व-आरम्भ परित्यागी यः मत् भक्तः सः मे प्रियः।। १६ ।।

शब्दार्थ

(अनपेक्षः) जो (ईश्वर के सिवा किसी से ) अपेक्षा नहीं रखता (शुचिः) जो स्वच्छ रहने वाला (दक्षः) सत्यवादी (ईमानदार) ( उदासीनः ) निर्पेक्ष (गत-व्यथः) भय और शोक से मुक्त है (यः) जिसने (सर्व) सारे (आरम्भ) व्यर्थ काम (परित्यागी) त्याग दिए हो (सः) वह (भक्तः) भक्त (मे) मुझे (प्रियः) प्रिय हैं।

अनुवाद

जो (ईश्वर के सिवा किसी से ) अपेक्षा नहीं रखता। जो स्वच्छ रहने वाला, सत्यवादी ( ईमानदार), निर्पेक्ष, भय और शोक से जिसने सारे व्यर्थ काम त्याग दिए हों, वह भक्त मुझे प्रिय हैं। मुक्त है।

नोट

1. इस श्लोक नं. १२.१६ में एक शब्द है आरम्भ। यह शब्द आगे भी कई बार आएगा। स्वामी मुकुन्दानन्द ने इसका अर्थ undertaking और स्वामी राम सुखदास जी ने 'नए कर्म' लिखा है। के । कुरआन प्रकाश में मेरे शोध के अनुसार यह वह कर्म है जिनके करने से न पाप होता है और न पुण्य मिलता है, केवल समय नष्ट होता है। कुरआन में इसे व्यर्थ काम कहा है। और एक आयत में कहा है कि “ईश्वर के पवित्र भक्त (मोमीन) व्यर्थ काम से दूर रहते है"। (सूरे अल मोमिनून (२३) आयत (३)) ऐसे काम के कुछ उदाहरण है, ताश खेलना, कॅरम खेलना इत्यादी। इन खेलों से न शारीरिक और मानसिक स्वास्थ अच्छा होता और न ही कोई ज्ञान प्राप्त होता है। केवल समय नष्ट होता है। समय ईश्वर का वरदान है। उसे नष्ट करना भी ईश्वर के उपहार का अपमान करना है। 2. नालंदा विशाल शब्द सागर कोश में 'उदास' शब्द का एक अर्थ निर्पेक्ष लिखा है। (पेज नं. १५६)