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विषय नं. 49 - आत्म-संयम



अध्याय नं. 6 ,श्लोक नं. 2
श्लोक

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥2॥

यम् संन्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव। न हि असंन्यस्त सड् कल्पः योगी भवति कश्चन ।। २ ।।

शब्दार्थ

इति) इस प्रकार (पाण्डव) हे अर्जुन ( यम्) जिसे (संन्यासम्) सन्यास (निःस्वार्थ कर्म करना) (प्राहुः) कहते हैं (तम् ) उसी को (योगम्) ईश्वर की प्रार्थना (विद्धि) जानो (हि) नि:संदेह (असंन्यस्त) बिना निःस्वार्थ कर्म करने के (सड्कल्पः) संकल्प के ( कश्चन) कोई भी (योगी) कर्म योगी (न) नहीं ( भवति) बन सकता।

अनुवाद

इस प्रकार, हे अर्जुन, जिसे सन्यास (नि:स्वार्थ कर्म करना) कहते हैं, उसी को ईश्वर की प्रार्थना जानो। नि:संदेह बिना निःस्वार्थ कर्म करने के संकल्प के कोई भी "कर्म-योगी" नहीं बन सकता।

नोट

ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा कि, तुम धार्मिकता (सच्चाई Righteousness) के पद को नहीं पहुंच सकते जब तक की अपनी उन चीजों में से न खर्च करो जो तुम्हें प्रिय हैं। और जो चीज़ भी तुम खर्च करोगे, तो ईश्वर उसका जानने वाला है। (सूरे आले-इमरान (३) आयत (९२)) (अर्थात अपना समय और धन जो मनुष्य को अत्यंन्त प्रिय होता है जब तक मनुष्य इसे निःस्वार्थ ईश्वर की प्रसन्नता के लिए नहीं खर्च करेगा तब तक ईश्वर का प्रिय नहीं होगा)