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विषय नं. 49 - स्वार्थरहित कर्म का वर्णन



अध्याय नं. 12 ,श्लोक नं. 11
श्लोक

अथैतदप्यशक्तोऽसि मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥

अथ एतत् अपि अशक्तः असि कर्तुम् मत् योगम् आश्रितः ।
सर्व-कर्म फल त्यागम् ततः कुरु यत-आत्मवान्।।११।।

शब्दार्थ

(अथ) यदि (असि) इस तरह से (अपि) भी (अशक्तः) (तुम) असमर्थ हो (आश्रितः) (मेरी) शरण लेकर (मत्) मेरी (योगम् ) प्रार्थना (कर्तुम् ) करने के लिए (एतः) तो (सर्व कर्म) अपने सभी सत कर्मों के (फल) कर्म फल को (त्यागम्) छोड़ दो (अर्थात निःस्वार्थ कर्म करो और) (आत्मवान्) अपने मन को (यत) वश में (कुरु) रखो।

अनुवाद

यदि इस तरह से भी ( तुम) असमर्थ हो (मेरी) शरण लेकर मेरी प्रार्थना करने के लिए, तो अपने सभी सत कर्मों के कर्म फल को छोड़ दो। (अर्थात नि:स्वार्थ कर्म करो और) अपने मन को वश में रखो।

नोट

ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा कि, “अपने ईश्वर को पुकारो गिड़गिड़ाते हुए और चुपके चुपके, नि:संदेह वह (धार्मिक) सीमा का उल्लघंन करने वालों को पसन्द नहीं करता।" (सूरह अल आराफ-७, आयत ५५ )