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विषय नं. 52 - समाज सेवा



अध्याय नं. 6 ,श्लोक नं. 32
श्लोक

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥32॥

आत्म औपम्येन सर्वत्र समम् पश्यति यः अर्जुन । सुखम् वा यदि वा दुःखम् सः योगी परमः मतः ।। ३२ ।।

शब्दार्थ

(अर्जुन) हे अर्जुन (यः) जो व्यक्ति (सर्वत्र) सब प्राणियों के ( सुखम् वा दुःखम्) सुख-दुःख को (आत्म औपन्येन) अपने (सुख-दुःख) के (समम् ) समान ही ( पश्यति) देखता है (सः) (तो) वह (योगी) योगी (परमः) सबसे श्रेष्ठ है (मतः) यह मेरा निर्णय है।

अनुवाद

हे अर्जुन! जो व्यक्ति सब प्राणियों के सुख-दुःख को अपने (सुख-दु:ख) के समान ही देखता है (तो) वह योगी सबसे श्रेष्ठ है यह मेरा निर्णय है।

नोट

पैगम्बर मुहम्मद साहब (स.) ने कहा, तुम में से कोई भी उस समय तक ईश्वर में श्रद्धा रखने वाला नहीं समझा जाएगा जब तक तुम अपने भाई के लिए वही पसंद न करो जो तुम अपने लिए पसंद करते हो। (हदीस-बुखारी- मुस्लिम)