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विषय नं. 54 - धर्म ज्ञान के प्रचार का महत्व



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 68
श्लोक

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।।68।।

यः इदम् परमम् गुह्यम् मत् भक्तेषु अभिधास्यति । भक्तिम् मयि पराम् कृत्वा माम् एवं एष्यति असंशयः ।। ६८।।

शब्दार्थ

(एरां) सच तो यह है कि (मयि) मेरी (भक्तिम्) भक्ति (कृत्वा) करते हुए, (यः) जो प्रचारक (मत्) मेरे (भक्तेषु) भक्तों को (इदम्) इस (परमम्) सबसे श्रेष्ठ व दिव्य (गुह्यम) छिपे हुए ज्ञान को (अभिधास्यति) समझाता है (असंशय) नि:सन्देह (माम्) वह मेरे (पराम्) सबसे श्रेष्ठ व दिव्य (स्वर्ग के) धाम को (एष्यति) प्राप्त करता है।

अनुवाद

सच तो यह है कि मेरी भक्ति करते हुए, जो प्रचारक मेरे भक्तों को इस सबसे श्रेष्ठ व दिव्य छिपे हुए ज्ञान को समझाता है, नि:सन्देह वह मेरे सबसे श्रेष्ठ व दिव्य (स्वर्ग के) धाम को प्राप्त करता है।