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विषय नं. 6 - ईश्वर के गुण



अध्याय नं. 7 ,श्लोक नं. 7
श्लोक

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥7॥

मत्तः पर-तरम् न अन्यत् किश्चत् अस्ति धनज्जय मयि सर्वम् इदम् प्रोतम् सूत्रे मणि-गणाः इव ।।७।।

शब्दार्थ

(धनंजय) हे अर्जुन (मन्त) मुझ (एक ईश्वर) से (पर-तरम् ) श्रेष्ठ (अन्यत्) कोई दुसरा (न किश्चित) जरा भी नहीं (अस्ति) है (इव) जिस प्रकार (मणि गणाः) मणियाँ (सुत्रे) सूत धागे में (प्रोतम्) पिरोयी हुई (होने के कारण टिकी रहती हैं) (सर्वम्) (इसी प्रकार) यह सारा संसार (मयि) मुझ (एक ईश्वर के सहारे टिका हुआ है या मुझ पर ही निर्भर है)

अनुवाद

हे अर्जुन! मुझ (एक ईश्वर) से श्रेष्ठ कोई दुसरा जरा भी नहीं है। जिस प्रकार मणियाँ सूत धागे में पिरोयी हुई (होने के कारण टिकी रहती है)। (इसी प्रकार) यह सारा संसार मुझ (एक ईश्वर के सहारे टिका हुआ है, या मुझ पर ही निर्भर है)