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विषय नं. 55 - वर्णाश्रम धर्म



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 44
श्लोक

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् । परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44||

कृषि गो रक्ष्य वाणिज्यम् वैश्य कर्म स्वभाव- जम। परिचर्या आत्मकम् कर्म क्षुद्रस्य अपि स्वभाव जम् ।।४४ ।।

शब्दार्थ

(कृषी) खेती-बाडी करना (गो) गाय की (रक्ष्य) रक्षा करना (और) (वाणिज्यम्) व्यापार करना (वैश्य कर्म) वैश्य के कर्म हैं (स्वभाव-जम्) और यह गुण उनमें जन्म से होते हैं। (परिचर्या आत्मकम्) (और इसी तरह) सेवा, (आत्मकम् कर्म) से संबंधित कर्म (शुद्रस्य) शुद्र के हैं (अपि स्वभाव जम्) यह स्वाभाविक गुण भी (शुद्र में) जन्म से होते हैं।

अनुवाद

खेती-बाडी करना, गाय की रक्षा करना, और व्यापार करना वैश्य के कर्म हैं। और यह गुण उनमें जन्म से होते हैं। और इसी तरह सेवा से संबंधित कर्म र के हैं। यह स्वाभाविक गुण भी शुद्र (शुद्र में) जन्म से होते हैं।

नोट

ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा कि, सांसारिक जीवन में मनुष्य के जीवन-यापन के साधन (economy and status) हमने उनके बीच बाँटे है, और हमने उनमें से कुछ लोगों को दूसरे कुछलोगों से श्रेणियों की दृष्टि से उच्च रखा है। ताकि उनमें से वे एक-दूसरे से काम लें। और तुम्हारे रब की दयालुता उससे कहीं उत्तम है जिसे वे समेट रहे हैं। (सूरे अज़-जूखरुफ ४३, आयत ३२)