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विषय नं. 55 - वर्णाश्रम धर्म



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 45
श्लोक

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥45||

स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिम् लभते नरः। स्व-कर्म निरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥४५॥

शब्दार्थ

(स्वे स्वे) अपने-अपने (कर्मणि) (स्वाभाविक गुणों के अनुसार) काम में (अभिरत:) लगे हुए (नरः) मनुष्य (ही) (संसिद्धिम् ) सफलता (लभते) प्राप्त करते हैं (स्व-कर्म) अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम (निरतः) करने वाले (यथा) जिस प्रकार (सिद्धिम)सफलता (विन्दति) प्राप्त करते हैं (तत्) वह (शृणु) (मुझसे सुनो)।

अनुवाद

अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम में लगे हुए मनुष्य ही सफलता प्राप्त करते हैं। अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम करने वाले जिस प्रकार सफलता प्राप्त करते हैं वह मुझसे सुनो।