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विषय नं. 55 - वर्णाश्रम धर्म



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 47
श्लोक

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥47॥

श्रेयान् स्व-धर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् स्वभाव-नियतम् कर्म कुर्वन न आप्नोति किल्बिषम् ।।४७ ।।

शब्दार्थ

(पर) दूसरों के स्वाभाविक गुणों वाले (धर्मात) कर्तव्यों (कर्मों को) (सु-अनुष्ठितात्) अच्छी तरह करने से (श्रेयान्) अधिक उत्तम है कि ( विगुण:) कम स्वाभाविक गुण होते हुए भी (स्व-धर्मः) (मनुष्य) अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम करे (क्योंकि) (स्वभाव) अपने स्वाभाविक गुणों (नियतम्) के अनुसार (कर्म) काम (कुर्वन) करने से (किल्बिषम्) असफलता (न) नहीं (आप्नोति) मिलती।

अनुवाद

दूसरों के स्वाभाविक गुणों वाले कर्तव्यों कर्मों को अच्छी तरह करने से अधिक उत्तम है कि कम स्वाभाविक गुण होते हुए भी मनुष्य अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम करे। क्योंकि अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम करने से असफलता नहीं मिलती।