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विषय नं. 57 - श्री कृष्ण महापुरुष



अध्याय नं. 11 ,श्लोक नं. 13
श्लोक

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा । अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥13॥

तत्र एक-स्थम् जगत् कृत्स्नम् प्रविभक्तम् अनेकधा । अपश्यत् देव-देवस्य शरीरे पाण्डवः तदा ।। १३ ।।

शब्दार्थ

(तदा) उस समय ( पाण्डव:) अर्जुन (ने) (अपश्यत्) ऐसा देखा कि (तत्र) वहाँ (एक स्थम्) (एक स्थान पर ) ( कृत्स्नम् ) सारा (जगत) जग (प्रविभक्तम् ) विभाजित हो रहा है (निर्माण हो रहा है) (अनेकधा) अनेक प्रकार में। (देव-देवस्य) देवताओं के ईश्वर (कि) (शरीरे) दैहिक शक्ति और संघटक तत्त्व से।

अनुवाद

उस समय अर्जुन ने ऐसा देखा कि वहाँ (एक स्थान पर) सारा जग विभाजित हो रहा है (निर्माण हो रहा है) अनेक प्रकार में देवताओं के ईश्वर की दैहिक शक्ति और संघटक तत्त्व से।

नोट

ईश्वरचंद ने अपने संस्कृत शब्दकोश में शरीर का अर्थ निम्नलिखित लिखा है। १. संघटक तत्त्व (Constituent Elements) २. दैहिक शक्ति (Internal power) इस कारण हमने इन अर्थ को श्लोक नं. ११.१३ के अनुवाद में लिया है।