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विषय नं. 8 - अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य



अध्याय नं. 3 ,श्लोक नं. 5
श्लोक

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥5॥

न हि कश्चित् क्षणम् अपि जातु तिष्ठति अकर्म कृत् । कार्यते हि अवशः कर्म सर्वः प्रकृति-जैः गुणैः ।। ५ ।।

शब्दार्थ

(कश्चित) कोई (भी मनुष्य) (जातु) किसी भी अवस्था में (क्षणम्) एक क्षण के लिए (अपि) भी (अकर्मकृत) कर्म किए बिना (न) नहीं। (तिष्ठते) रह सकता है। (हि) क्योंकि (प्रकृति) ईश्वर ने प्राकृतिक रूप से उसमें (गुणैः) जो गुण (जै) उत्पन्न किये है। (अवशः) उससे बाध्य होकर वह सब (कर्म) कर्म (कार्यते) करता रहता है।

अनुवाद

कोई (भी मनुष्य) किसी भी अवस्था में एक क्षण में के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। क्योकि ईश्वर ने प्राकृतिक रूप से उसमें जो गुण उत्पन्न किये हैं उस से बाध्य होकर वह सब कर्म करता रहता है।