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विषय नं. 8 - अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य



अध्याय नं. 5 ,श्लोक नं. 9
श्लोक

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥ इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥9॥

प्रलपन् विसृजन गृह्णन् उन्मिषन् निमिषन् अपि । इन्द्रियाणि इन्द्रिय अर्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् ||९||

शब्दार्थ

(युक्त) ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति (पश्यन्) देखता हुआ (शृण्वन) सुनता हुआ (स्पृशन्) छूता हुआ (जिघ्रन्) सूँघता हुआ (अनन्) खाता हुआ (गच्छन्) चलता हुआ (स्वपन्) सोता हुआ (श्वसन्) श्वास लेता हुआ (प्रलपन) बोलता हुआ (विसूजन) देता हुआ (गृहन) लेता हुआ (उन्मिषन्) (आँख) खोलता हुआ (निमिषन्) (आँख) मूँदता हुआ (मन्यते) सोचता हुआ (एव) नि:संदेह ( तत्त्ववित ) वह इस सत्य को जानता है कि (न एव किज्वन्) मैं नि:संदेह कुछ नहीं (करोमि ) करता हूँ (अपि) परंतु ( इन्द्रियाणि) आनंद करने की इच्छा (इन्द्रिय अर्थेषु) आनंद करने के वस्तू को (वर्तन्ते) पाने के लिए लगी हुई है। (इति) इस प्रकार का उसे (धारभत्) विश्वास है ।

अनुवाद

ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, देता हुआ, लेता हुआ, (आँख) खोलता हुआ, आँख मूँदता हुआ, सोचता हुआ, नि:संदेह वह इस सत्य को जानता है कि मैं नि:संदेह कुछ नहीं करता हूँ। परंतु आनंद करने की इच्छा आनंद करने के वस्तु को पाने के लिए लगी हुई है। इस प्रकार का उसे विश्वास है। (श्लोक नं. १५.७ को पढ़िए तो यह श्लोक समझ में आएगा)