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विषय नं. 8 - अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य



अध्याय नं. 5 ,श्लोक नं. 10
श्लोक

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सगं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥10||

ब्रह्मणि आधाय कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा करोति
यः।
लिप्यते न सः पापेन पदम् पत्रम् इव
अम्भसा ।। १० ।।

शब्दार्थ

(यः) वह (जिसने) (कर्माणि) अपने सारे कर्म (ब्रह्मणि) ईश्वर को (आधाय) अर्पण कर दिए हैं (और) (सङ्गम्) ईश्वर के प्रार्थना के साथ किसी और की उपासना को (त्यक्त्वा) छोड़कर (करोति) सत्कर्म करते हैं। (सः) वह (न) नहीं (लिप्यते) लिप्त होते (फंसते) (पापेन) पापों में (इव) जैसे (पदम-पत्रम्) कमल का पत्ता (बचा रहता है) (अम्भसा) पानी से।

अनुवाद

वह (जिसने) अपने सारे कर्म ईश्वर को अर्पण कर दिए हैं। (और) ईश्वर के प्रार्थना के साथ किसी और की उपासना को छोड़कर सत्कर्म करते हैं। वह नहीं लिप्त होते (फंसते) पापों में, जैसे कमल का पत्ता (बचा रहता है) पानी से।