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विषय नं. 8 - अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य



अध्याय नं. 5 ,श्लोक नं. 13
श्लोक

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥13॥

सर्व कर्माणि मनसा संन्यस्य आस्ते सुखम् वशी। नव-द्वारे पुरे देही न एव कुर्वन्न कारयन् ।। १३ ।।

शब्दार्थ

( ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति) (मनसा) दृढ संकल्प के साथ (सर्व) वे सब (कर्माणि) कर्म जो निषिद्ध हैं। ( सन्न्यस्य ) छोड़ देता है ( वशी) अपने आपको वश में रखता है। (सुखम्) और सुख से रहता है। (कारण कि वह से जानता है कि) (देही) यह शरीर (नव-द्वारे) जो नौ द्वार वाले (पुरे) नगर (शहर) के समान हैं (न एव) न तो यह (कुर्वन) कर्म कर सकता है। (न) (और) न (कारयन्) किसी से करवा सकता है।

अनुवाद

(ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति) दृढ संकल्प के साथ वे सब कर्म जो निषिद्ध (Prohibited) हैं छोड़ देता है। अपने आपको वश में रखता है और सुख से रहता है । (कारण कि वह जानता है कि) यह शरीर जो नौ द्वार वाले नगर (शहर) के समान हैं, न तो यह कर्म कर सकता है। (और) न किसी से करवा सकता है।