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विषय नं. 8 - अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य



अध्याय नं. 5 ,श्लोक नं. 14
श्लोक

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोग वस्तु प्रवर्तते ॥14॥

न कर्तृत्वम् न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्म-फल संयोगम् स्वभावः तु प्रवर्तते ।। १४ ।।

शब्दार्थ

(लोकस्य) लोगों को (न) न (ही) (कर्माणि) कर्म (करने का) (न) (और) न ही ( कर्तृव्यम्) कर्म करवाने का (न) (और) न (ही) (कर्म फल) कर्मों के फल (देने का) (सृजति) अधिकार है। (स्वभावः) (अगर मनुष्य) अपने स्वभाव को (प्रभुः) ईश्वर की इच्छा (आदेश) (संयोगम् ) के अनुसार कर ले ( तु) तो (प्रवर्तते) (सारे कर्म सही प्रकार से) होने लगें।

अनुवाद

लोगों को न ही कर्म (करने का) (और) न ही कर्म करवाने का (और) न ही कर्मों के फल (देने का) अधिकार है। (यदि मनुष्य) अपने स्वभाव को ईश्वर की इच्छा (आदेश) के अनुसार कर ले तो (सारे कर्म सही प्रकार से) होने लगे।

नोट

ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा, “हमने सांसारिक जीवन में इनके (मनुष्य के) बीच इनकी जीविका (व्यापार, व्यवसाय) को बाँटा है और हमने इनमें एक को दूसरे पर दर्जों में (सामाजिक पद) में उच्चता प्रदान की है। ताकि इनमें एक दूसरे से काम लेता रहे।" (सूरह अज-जुखरुफ-४३, आयत नं. ३२) अर्थात समाज में जो व्यक्ति जिस व्यवसाय या पद पर है वह सब ईश्वर ने ही निश्चित किया है। मनुष्य स्वयम कुछ नही कर सकता |