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विषय नं. 8 - अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य



अध्याय नं. 6 ,श्लोक नं. 1
श्लोक

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥1॥

भगवान उवाच,
अनाश्रितः कर्म-फलम् कार्यम् कर्म करोति यः । सः संन्यासी च योगी च न निः अग्निः न च अक्रियः ।। १ ।।

शब्दार्थ

(श्री भगवान उवाच) ईश्वर ने कहा (यः) जो (व्यक्ति) (कर्म) सत्कर्म को (कार्यम्) कर्तव्य समझकर (करोति ) करता है (कर्म) (और) अपने सत्कर्म के (फलम् ) फल की (अनातिः) आशा नहीं रखता (अर्थात कर्मों को निःस्वार्थ करता है) (यः) वही व्यक्ति (संन्यासी) संन्यासी है (च) और (योगी) कर्म योगी है। (च) और (न) न (वह व्यक्ति जो) (निःअग्निः) अग्नि ( पर बना भोजन नहीं खाता) (न च अक्रिय) और न वह जो कोई कर्म नहीं करता (सांसारिक जीवन को जिसने त्याग दिया हो।)

अनुवाद

ईश्वर ने कहा, जो (व्यक्ति) सत्कर्म को कर्तव्य समझकर करता है। (और) अपने सत्कर्म के फल की आशा नहीं रखता (अर्थात कर्मों को निस्वार्थ करता है)। वही व्यक्ति संन्यासी है और कर्म योगी है। और न वह व्यक्ति जो अग्नि (पर बना भोजन नहीं खाता), और न वह जो कोई कर्म नहीं करता (सांसारिक जीवन को जिसने त्याग दिया हो।)