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विषय नं. 8 - अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य



अध्याय नं. 18 ,श्लोक नं. 5
श्लोक

यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥5॥

यज्ञः दान तपः कर्म न त्याज्यम् कार्यम् एव तत् । यज्ञः दानम् तपः च एव पावनानि मनीषिणाम् ||५||

शब्दार्थ

(यज्ञ) यज्ञ (तप) तप (दान) दान (कर्म) (जैसे) कर्मों (को) (त्याज्यम्) (कभी भी) छोड़ना (न) नहीं (चाहिए) (एव) (क्योंकि) नि:संदेह (तत्) यह (कर्म) (कार्यम्) अनिवार्य कर्तव्य है (यज्ञ) यज्ञ (तप) तप (दान) दान (एव) नि:संदेह (मनीषिणाम् ) विचारशील व्यक्तियों को (पावनानि) पवित्र करने वाले हैं।

अनुवाद

यज्ञ, तप, दान जैसे कर्मों को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए। क्योंकि निःसंदेह यह कर्म अनिवार्य कर्तव्य है। यज्ञ, तप, दान, नि:संदेह विचारशील व्यक्तियों को पवित्र करने वाले हैं।