Home Chapters About

अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग


INTRODUCTION :


● इस अध्याय का नाम है कर्म सन्यास योग। इस अध्याय में दो प्रकार के कर्मों का वर्णन है। १. कर्म योग २. कर्म सन्यास

● कर्म योग, यह वह कर्म हैं जिनसे मनुष्य व्यक्तिगत स्तर पर ईश्वर से निकट होता है, जुड़ता है। ईश्वर की कृपा दृष्टी प्राप्त करता है। और अपने अनिवार्य कर्तव्य को पूरा करता है ।

● कर्म सन्यास, यह वह कर्म हैं जो मनुष्य मानव समाज के कल्याण के लिए करता है। सन्यास का अर्थ है छोड़ देना। तो कर्म सन्यास ऐसे कर्म हैं जिनके फल को छोड़ दिया जाता है। या ऐसे कर्म जो नि:स्वार्थ किए जाते हैं। क्योंकि जनकल्याण के कर्मों से कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं होता।

● इस अध्याय में कहा गया है कि कर्म संन्यास से कर्म योग श्रेष्ठ है; क्योंकि जब मनुष्य व्यक्तिगत स्तर पर ईश्वर की प्रार्थना नियमित रुप से करता होगा और अपने अनिवार्य कर्तव्यों को पूरा करता होगा तो ही उसके लिए ईश्वर को प्रसन्न करने जनकल्याण के कर्म करना आसान हो जाऐंगे।

● इस अध्याय में कर्म योगी और कर्म संन्यासी के गुणों का वर्णन है, ताकि मनुष्य अपने आप में चिन्तन करे और यदि कोई गुण नहीं है तो उसे अपने में उत्पन्न करे।
अन्त में इन कर्मों को करने से जो फल मिलता है उसका वर्णन है। और वह कर्म-फल है स्वर्ग।

SUMMARY OF SHLOKS :


• श्लोक नं. ५.२ से ५.६ तक कर्म योग और कर्म सन्यास का परिचय है, और अन्त में कहा गया है कि कर्मयोग करने वाले के लिए कर्म सन्यास सरल होगा।

● श्लोक नं. ५.४ और ५.५ में कर्म संन्यास को सांख्य कहा गया है। सांख्य का अर्थ है विश्लेषण करना। जब व्यक्ति दिव्य ज्ञान का विश्लेषण करता है तभी वह कर्म सन्यास के लिए प्रेरीत होता है। उदाहरण के तौर पर श्लोक नं. ५.१८ का अर्थ है वह व्यक्ति जो दिव्य ज्ञान को संपूर्ण रूप से जानता है और जो नर्म स्वभाव का है वह ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता है और कुत्ता खाने वाले और ज्ञानी पंडित को भी एक दृष्टि से देखता है।

जब तक मनुष्य के मन में इस श्लोक के अनुसार भावना नहीं होगी। वह जातिवाद और छूतछात से उपर उठकर सारे प्राणियों का एक समान सेवा कभी नहीं करेगा।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 5.1 View

अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण! आप कर्मों को नि:स्वार्थ रुप से करने के लिए कहते हो। और फिर प्रार्थना द्वारा ईश्वर से जुड़ने की प्रशंसा करते हो । इन दोनों साधनों में जो एक निश्चित रूप से श्रेष्ठ है उसको मेरे लिए कहिये। कर्म योग श्रेष्ठ है

भगवद गीता - श्लोक 5.2 View

ईश्वर ने कहा, संन्यास योग और कर्मयोग यह दोनों ही कल्याण करने वाले हैं, परन्तु इन दोनों में संन्यास योग से कर्मयोग श्रेष्ठ है।

भगवद गीता - श्लोक 5.3 View

हे अर्जुन! उस व्यक्ति को हमेशा संन्यासी समझना चाहिए (जो) न (किसी से) द्वेष करता है (और) न (किसी से) आशा रखता है। (और) जो सुख-दुःख में संयम रखता है। नि:संदेह वह में अनिवार्य कर्तव्य पूरे करके उनके बंधन से मुक्त हो जाता है और सुखी रहता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.4 View

मूर्ख लोग संन्यास, योग और कर्म योग को अलग-अलग कहते हैं। (किन्तु) ज्ञानी ऐसा नहीं कहते । (वास्तव में) दोनों के वही फल (परिणाम) है, जो किसी एक को अच्छी तरह करने से मिलता है। (वह फल या परिणाम हैं ईश्वर की प्रसन्नता और पापों से मुक्ति)

भगवद गीता - श्लोक 5.5 View

(जो आध्यात्मिक स्थान) संन्यास योग को करने से मिलता है। कर्मयोग से भी वही आध्यात्मिक स्थान प्राप्त होता है। वह जो संन्यास योग और कर्म योग को एक जैसा ही देखता है (समझता है) वही (धार्मिक सत्य और तथ्य को सही दृष्टिकोण से) देखता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.6 View

किन्तु, हे अर्जुन सन्यास योग कर्म योग के बिना सिद्ध होना कठिन है। भला व्यक्ति जो ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ है, वह देर लगाए बिना ईश्वर के आशिर्वाद को प्राप्त कर लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.7 View

वह जो ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ है। वह जिसके सोच-विचार पवित्र हैं। वह जिसने अपनी इच्छाओं को वश में कर लिया है। वह जिसने अपने इन्द्रियों को वश में कर लिया है। (वह जिसका विश्वास है कि) मनुष्य का ईश्वर ही सारे प्राणियों का ईश्वर है। नि:संदेह (वह व्यक्ति संसार के सारे) कर्म करता है (किन्तु) (पाप में) लिप्त नहीं होता (पाप में नहीं फंसता ) ।

भगवद गीता - श्लोक 5.8 View

ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, देता हुआ, लेता हुआ, (आँख) खोलता हुआ, आँख मूँदता हुआ, सोचता हुआ, नि:संदेह वह इस सत्य को जानता है कि मैं नि:संदेह कुछ नहीं करता हूँ। परंतु आनंद करने की इच्छा आनंद करने के वस्तु को पाने के लिए लगी हुई है। इस प्रकार का उसे विश्वास है। (श्लोक नं. १५.७ को पढ़िए तो यह श्लोक समझ में आएगा)

भगवद गीता - श्लोक 5.9 View

ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, देता हुआ, लेता हुआ, (आँख) खोलता हुआ, आँख मूँदता हुआ, सोचता हुआ, नि:संदेह वह इस सत्य को जानता है कि मैं नि:संदेह कुछ नहीं करता हूँ। परंतु आनंद करने की इच्छा आनंद करने के वस्तु को पाने के लिए लगी हुई है। इस प्रकार का उसे विश्वास है। (श्लोक नं. १५.७ को पढ़िए तो यह श्लोक समझ में आएगा)

भगवद गीता - श्लोक 5.10 View

वह (जिसने) अपने सारे कर्म ईश्वर को अर्पण कर दिए हैं। (और) ईश्वर के प्रार्थना के साथ किसी और की उपासना को छोड़कर सत्कर्म करते हैं। वह नहीं लिप्त होते (फंसते) पापों में, जैसे कमल का पत्ता (बचा रहता है) पानी से।

भगवद गीता - श्लोक 5.11 View

(वह जिसने) छोड़ दिया है एक ईश्वर की प्रार्थना के साथ किसी और की प्रार्थना को। केवल (वही) (एक ईश्वर की) प्रार्थना करने वाला, पवित्र शरीर, मन, सोच, इच्छाओं (और) आत्मा (के साथ) सत्कर्म कर सकता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.12 View

ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति अपने सत्कर्म के फल को छोड़ देता है। (अर्थात सत्कर्म निस्वार्थ करता है) और शांति प्राप्त करता है। सत्य मार्ग से भटका हुआ व्यक्ति जो

भगवद गीता - श्लोक 5.13 View

(ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति) दृढ संकल्प के साथ वे सब कर्म जो निषिद्ध (Prohibited) हैं छोड़ देता है। अपने आपको वश में रखता है और सुख से रहता है । (कारण कि वह जानता है कि) यह शरीर जो नौ द्वार वाले नगर (शहर) के समान हैं, न तो यह कर्म कर सकता है। (और) न किसी से करवा सकता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.14 View

लोगों को न ही कर्म (करने का) (और) न ही कर्म करवाने का (और) न ही कर्मों के फल (देने का) अधिकार है। (यदि मनुष्य) अपने स्वभाव को ईश्वर की इच्छा (आदेश) के अनुसार कर ले तो (सारे कर्म सही प्रकार से) होने लगे।

भगवद गीता - श्लोक 5.15 View

अज्ञानता ने (मनुष्य के) ज्ञान को ढांप लिया है, जिसके कारण मनुष्य मोहित हो गया है (भ्रम में है और कल्पना करता है कि) (वह) ईश्वर (जो सर्वव्यापी है) (वह) न (किसी के) अच्छे कर्म स्वीकार करेगा। और न पापों का दंड देगा।

भगवद गीता - श्लोक 5.16 View

नि:संदेह वह (सारे) मनुष्य जिनके ज्ञान को अज्ञानता ने नष्ट कर दिया है। यह सच्चा ज्ञान उस सबसे श्रेष्ठ ईश्वर को उन पर सूर्य के समान प्रकाशित कर देता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.17 View

(जिन लोगों ने) ज्ञान के द्वारा उस ईश्वर से अपनी बुद्धि को जोड़ रखा है। वह जिसका मन और आत्मा ईश्वर की याद में मग्न है। वह जिसकी ईश्वर में दृढ़ श्रद्धा है। वह जिसने केवल ईश्वर की शरण ली है। वह प्राप्त करते हैं (स्वर्ग) जहाँ से कोई दोबारा नहीं लौटता है, और जहाँ मनुष्य पाप और दुःखों से मुक्त हो जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.18 View

वह व्यक्ति जो दिव्य ज्ञान को संपूर्ण रूप से जानता हैं। और जो नर्म स्वभाव का है। (वह) ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता, और कुत्ता खाने वाले, और ज्ञानी पंडित को भी एक दृष्टि से देखता है। (अर्थात सब ईश्वर की रचना हैं, और सबको जिने का समान अधिकार है।)

भगवद गीता - श्लोक 5.19 View

वह ईश्वर की श्रद्धा में दृढता से स्थित थे। इस कारण उन्होंने इस जीवन में सारे सृष्टि को जीता। यह वह (लोग थे) जिनके मन: बिना दोष (संदेह) के ईश्वर की तरह समानता और न्याय के सिद्धांत पर स्थित थे।

भगवद गीता - श्लोक 5.20 View

(वह सच्चा व्यक्ति) जिसकी बुद्धि (एक ईश्वर की श्रद्धा पर) स्थिर है। (जिसे ईश्वर के आदेश में कोई) संदेह नहीं। जिसे ईश्वर के आदेश का संपूर्ण ज्ञान है। जो ईश्वर के आदेश पालन पर दृढता से स्थित है। (वह) प्रिय वस्तु को प्राप्त करके न बहुत प्रसन्न होता है और अप्रिय वस्तु या स्थिती प्राप्त करके न बहुत दुःखी होता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.21 View

आनंद देने वाली प्राकृतिक वस्तु में रुचि न रखने वाला व्यक्ति अपने अंदर जो सात्विक सुख है उसका अनुभव करता है। वह (व्यक्ति जो) ईश्वर की प्रार्थना में लगा हुआ व्यक्ति है (वह मृत्यु के बाद भी) अनंत सुख का अनुभव करेगा (आनंद लेगा)।

भगवद गीता - श्लोक 5.22 View

नि:संदेह जो आनंद उत्पन्न होता है (आनंद देने वाली वस्तुओं से) वह नि:संदेह कारण बनते हैं दुःख का पहले (अर्थात पृथ्वी लोक के जीवन में)। और मृत्यु के बाद वाले जीवन में भी। (इस कारण) हे अर्जुन बुद्धिमान इन आनंद देने वाली वस्तुओं से रुची नहीं रखते।

भगवद गीता - श्लोक 5.23 View

जो (व्यक्ति) इस शरीर को त्यागने से पहले इस ( शरीर में) उन शक्तियों को वश में करने की क्षमता विकसित करता है, जो उत्पन्न होती है क्रोध से, (और) काम भावना से ( आनंद लेने की इच्छा से)। वही (व्यक्ति) सुखी व्यक्ति है।

भगवद गीता - श्लोक 5.24 View

वह (जो) मन के भीतर से सुखी है। जो अंदर से संतुष्ट है। और जो अंदर से दिव्य ज्ञान से प्रकाशित है। वह (व्यक्ति) ईश्वर की प्रार्थना करने वाला है। भूतकाल में (मृत्यु के पश्चात वह) ईश्वर के शांति के स्थान (स्वर्ग) को प्राप्त कर लेगा।

भगवद गीता - श्लोक 5.25 View

पवित्र और पुण्य लोग जिनके संपूर्ण पाप नष्ट हो गए हैं। जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गए है जिनका शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रिय वश में है। जो सम्पूर्ण प्राणियों के भलाई के काम में लगे रहते हैं। वह ईश्वर के स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.26 View

पवित्र और पूज्य व्यक्ति (जिसने) काम भावना और क्रोध से मुक्ति पा लिया है ( अपने इन भावनाओं को सभी ओर से वश में कर लिया है)। और जिसने अपनी इच्छाओं को वश में रखा है। और जिसने अपने आपको (अपने अस्तित्व में आने के कारण को) पहचान लिया है। वह ईश्वर के स्वर्ग को प्राप्त करेगा। (नोट- मनुष्य के इस धरती पर जन्म लेने का उद्देश ईश्वर की प्रार्थना ही है।)

भगवद गीता - श्लोक 5.27 View

(पवित्र व्यक्ति जो) बाहर के सब आनंद करने के स्त्रोत, साधन और भावना को बाहर करता है। और नेत्रों की दृष्टि को (ध्यान को) भौंहे (eyebrow) के बीच में (स्थित करके) नासिका में चलने वाली अन्दर और बाहर आने जाने वाली सांस को बराबर करता है। (अर्थात प्राणायम करता है या ध्यान लगाता है।) जो वश में रखता है अपने आनंद का अनुभव करने वाले अंगो को। (और) मन और बुद्धि को (अपनी चाह और सोच को)। वह व्यक्ति पवित्र और पूज्य व्यक्ति है। उसके पापों को ईश्वर क्षमा करेगा। जो व्यक्ति अपने आनंद का अनुभव करने की इच्छा, डर, क्रोध को वश में करता है, नि:संदेह वह सदा के लिए नर्क से मुक्त हो जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.28 View

(पवित्र व्यक्ति जो) बाहर के सब आनंद करने के स्त्रोत, साधन और भावना को बाहर करता है। और नेत्रों की दृष्टि को (ध्यान को) भौंहे (eyebrow) के बीच में (स्थित करके) नासिका में चलने वाली अन्दर और बाहर आने जाने वाली सांस को बराबर करता है। (अर्थात प्राणायम करता है या ध्यान लगाता है।) जो वश में रखता है अपने आनंद का अनुभव करने वाले अंगो को। (और) मन और बुद्धि को (अपनी चाह और सोच को)। वह व्यक्ति पवित्र और पूज्य व्यक्ति है। उसके पापों को ईश्वर क्षमा करेगा। जो व्यक्ति अपने आनंद का अनुभव करने की इच्छा, डर, क्रोध को वश में करता है, नि:संदेह वह सदा के लिए नर्क से मुक्त हो जाता है।

भगवद गीता - श्लोक 5.29 View

वह ईश्वर है जिसके लिए सब प्रार्थनाएं और तपस्याएं की जाती हैं। वह जो महान ईश्वर है सब लोगों का वह बहुत दया करने वाला है सभी प्राणीयों पर। मुझे (अर्थात ईश्वर को) जो ऐसा मानता है, वह प्राप्त करेगा शान्ति के स्थान (स्वर्ग) को ।