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अध्याय 7 - ज्ञान विज्ञान योग


INTRODUCTION :


●अब तक जो कुछ हमने पढ़ा उसका सार यह है की कुछ कर्म बन्धन है जिनसे हम बन्धे हैं। एक है कर्म योग जो व्यक्तिगत स्तर पर हमारे अनिवार्य कर्म हैं और दुसरा है कर्म सन्यास जो सामाजिक स्तर पर हमारे लिए अनिवार्य कर्तव्य है।

● इनको भली-भाँति पूरा करने का ज्ञान हमें अध्याय नं. ४ से मिला।

इनको पूरा करने में सबसे बड़ी बाधा हमारा अपनी इच्छाओं को सबसे अधिक महत्त्व देना
हैं।

● अपनी इच्छाओं को वश में करने की एक ही पद्धति है और वह है, 'ध्यान योग' जो हमने
अध्याय नं. ६ में सिखा।

किंतु यह अपने कर्तव्यों को पूरा करना और लम्बे समय तक ध्यान योग करना यह सब कठिन काम है। मनुष्य इन्हें क्यों करेगा ?

● श्लोक नं. १८.१८ में है की तीन बात प्रेरणा देती है। (Motivating factors है) जिनके कारण मनुष्य
इन्हें करता है। वह है,

ज्ञान (Divine Knowledge)

ईश्वर में श्रद्धा (Faith in God)

अन्य लोक में श्रद्धा (Belief in hereafter )

इस कारण अब अध्याय नं. ७ से १८ तक इन्हीं तीनों विषयों पर अलग अलग प्रकार से चर्चा होगी ताकि मन में इन पर विश्वास बैठ जाए।

अध्याय नं. ७ से १३ तक मुख्य ज्ञान ईश्वर के
बारे में है।

SUMMARY OF SHLOKS :


● श्लोक नं. १ में ईश्वर ने कहा, "मुझमें मन १ लगाकर निश्चित समय पर मेरी प्रार्थना करो। मेरी शरण लेते हुए मेरे आदेश का पालन करो, "यही कर्मयोग और सन्यास योग को करने का आदेश है। और इनको करने की प्रेरणा ईश्वर और अन्य लोक में श्रद्धा से मिलेगी। अन्य लोक का उल्लेख श्लोक नं. ७.५ में और पुरा अध्याय ईश्वर में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए ही है।

● श्लोक नं. ७.४ और ७.५ में ईश्वर ने कहा की पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार इन आठ तत्त्वों से मैंने इस हीन (inferior) संसार को बनाया है। किन्तु मनुष्य को इसके अतिरिक्त मेरी महान प्राकृतिक रचना अन्य लोक को जानने का प्रयास करना चाहिए।

यह अन्य लोक का परिचय है जहाँ हम मृत्यु के बाद अनंत काल तक रहेंगे।

● अन्य लोक के बाद ईश्वर ने जल, रस,
चन्द्रमा, सूर्य, प्रभा, इत्यादि द्वारा अपनी महानता का परिचय दिया।

जल, रस, चन्द्रमा इत्यादि ईश्वर की महानता को
कैसे प्रकट करते हैं? इसको उदाहरण से समझने
का प्रयास करते हैं।

● जब किसी चित्रकार की महानता को परखना हो तो हम उसके बनाए गए चित्र का निरीक्षण करते हैं अर्थात चित्र ही चित्रकार के महानता का प्रमाण है।

इसी प्रकार ईश्वर की रची हुई वस्तुएं ही ईश्वर की महानता का प्रमाण है। श्लोक में पहले जल का उल्लेख है इसलिए हम पहले जल के उदाहरण से आरम्भ करते हैं।
संसार में अनेक प्रकार के कोल्ड्रींक्स हैं; जैसे कोको कोला, लिम्का, मँगोला इत्यादि। जो बड़ी बड़ी मल्टी नॅशनल कॉर्पोरेट कम्पनियां बनाती हैं, किन्तु एक प्यास से मरता हुआ व्यक्ति मरते समय केवल जल मांगता है। वह कभी नहीं कहता की मुझे एक घंट कोको कोला पिला दें। इसी तरह मनुष्य सारा जीवन जल को पीता है जिसमें कोई स्वाद नहीं है फिर भी वह कभी जल से नहीं उकताता। यही ईश्वर की महानता का प्रमाण है कि बिना स्वाद का जल ही मनुष्य जीवन भर पीना चाहता है और यह जल उसके स्वास्थ को भी अच्छा करता है।

● श्लोक नं. ७.९ में ईश्वर ने कहा है कि मैं पृथ्वी का पवित्र गन्ध हूँ।

गर्मी के मौसम के बाद जब पहली वर्षा होती है उस समय पृथ्वी से मिट्टी की एक सुगन्ध उठती है। इसे सुंघकर किसान में खुशहाली की आशा उत्पन्न होती है। और वह एकदम प्रसन्न हो जाता है।

विश्व में अनेक प्रकार के इतर, सेंट और सुगन्ध बनते हैं। किन्तु किसी सुगन्ध में वह गुण नहीं है में जो ईश्वर की मिट्टी के सुगन्ध से किसान में उत्पन्न होते है। यही ईश्वर की महानता है।

● इस अध्याय में और अध्याय नं. १० में ईश्वर की महानता को प्रकट करने वाले जिन वस्तुओं के नाम हैं उनसे ईश्वर की महानता कैसे प्रकट होती है यदि हम इसका वर्णन करें तो हजारों पत्रे भी कम पड़ेंगे।

इस कारण यह काम हम आप पर छोड़ते हैं। आप स्वयम् उनके बारे में सोचिए, तो मन से आपको ईश्वर की महानता का विश्वास हो जाएगा।

● श्लोक नं. ७.७ से ७.११ तक ईश्वर की
महानता का परिचय है।

● श्लोक नं. ७.१२ और ७.१३ में ईश्वर को न पहचानने का कारण बताया गया है।

● श्लोक नं. ७.१४ और ७.१५ में कहा गया है कि, सत्वगुण, रजोगुण और तमो गुण मनुष्य की परीक्षा के लिए है।

● श्लोक नं. ७.१६-७.१९ में उन लोगों का वर्णन है जो ईश्वर में श्रद्धा रखते है।

● श्लोक नं. ७.२० से ७.२३ तक देवताओं को पूजने के कारण और उनके परिणाम का वर्णन है।

● श्लोक नं. ७.२४ से ७.२६ में मूर्ख लोग ईश्वर के बारे में जो कल्पना करते हैं उसका
वर्णन है।

● श्लोक नं. ७.२७ में सत्य मार्ग से भटक जाने के कारण का वर्णन है।

● श्लोक नं. ७.२८-७.२९ में ईश्वर में श्रद्धा के महत्त्व का वर्णन है।

SHLOKS :

भगवद गीता - श्लोक 7.1 View

ईश्वर ने कहा, हे अर्जुन! मुझमें अपने मन को लगाते हुए मेरी शरण लेते हुए अनुसूचित समय पर मेरी प्रार्थना करो। बिना किसी संदेह के पूरी तरह से जैसे मुझे जान सकते हो वह सुनो।

भगवद गीता - श्लोक 7.2 View

कुशलता से इस ज्ञान (और इसके) साथ विज्ञान (को) मैं तुमसे कहूँगा। जिसे जानकर इस संसार में फिर से (तुम्हें) कोई और ज्ञान जानने की आवश्यकता नहीं रहेंगी।

भगवद गीता - श्लोक 7.3 View

हजारों मनुष्य में कुछ लोग ही एक ईश्वर में पूर्णतय: एकाग्र होकर प्रार्थना करने का प्रयास करते हैं। और ऐसे पूर्णतय: एकाग्र होकर प्रार्थना करने का प्रयास करने वालों में कुछ ही लोग मेरी वास्तविकता (सत्य) को जान पाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.4 View

पृथ्वी (मिट्टी), जल, अग्नि, वायु, आकाश । इसी प्रकार मन, बुद्धि और नि:संदेह अहंकार । यह (इस संसार में) मेरी आठ प्रकार की अलग अलग सृष्टि की रचना करने के पदार्थ हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.5 View

किन्तु हे अर्जुन! इस हीन (पृथ्वी के ) अतिरिक्त मेरी श्रेष्ठ रचना अन्य लोक को जानने का प्रयास करो, जिस पर इस संसार के सारे प्राणियों की सफलता या असफलता) निर्भर करती है।

भगवद गीता - श्लोक 7.6 View

इस प्रकार सभी धरती पर जन्म लेने वाले प्राणियों की (सफलता और असफलता) निर्भर करती है इन दोनों पर, अर्थात पृथ्वी लोक और अन्य लोक पर)। और मैं (ही) इस सृष्टि का आरंभ करने वाला हूँ। (और) सम्पूर्ण जगत का (में ही) विनाश करने वाला हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 7.7 View

हे अर्जुन! मुझ (एक ईश्वर) से श्रेष्ठ कोई दुसरा जरा भी नहीं है। जिस प्रकार मणियाँ सूत धागे में पिरोयी हुई (होने के कारण टिकी रहती है)। (इसी प्रकार) यह सारा संसार मुझ (एक ईश्वर के सहारे टिका हुआ है, या मुझ पर ही निर्भर है)

भगवद गीता - श्लोक 7.8 View

हे अर्जुन! मैं जल का स्वाद हूँ। सूर्य, चंद्रमा का प्रकाश हूँ। सारे वेदों में ओंकार (ॐ) आकाश का शब्द या जाप हूँ। मनुष्यों की शक्ति और क्षमता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 7.9 View

पृथ्वी की पवित्र सुगंध (मैं हूँ)। और (अग्नि का) प्रकाश (मैं) हूँ। तथा सम्पूर्ण प्राणियों में प्राण (मैं हूँ)। और तपस्या करने वालों की तपस्या (मैं) हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 7.10 View

हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का अनादि बीज मुझे जानो। बुद्धिमानों में बुद्धि (मुझसे जानो ) । तेजस्वियों में प्रकाश मैं हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 7.11 View

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानों में काम और क्रोध से रहित शक्ति मैं हँ और प्राणियों में आनंद का अनुभव करने की ऐसी इच्छा हूँ जो धर्म विरोधी नहीं।

भगवद गीता - श्लोक 7.12 View

नि:संदेह यह जो सात्विक और रजो और तमो गुण हैं वह भी मेरे द्वारा बनाए गए हैं)। किन्त तुम यह इस प्रकार समझो कि मैं उन ( मनुष्य) जैसा नहीं हूँ और वह (मनुष्य) भी मेरे (जैसे नहीं ) ।

भगवद गीता - श्लोक 7.13 View

ईश्वर द्वारा निर्मित किए गए इन तीनों गुणों में फंसकर यह सब संसार (के मनुष्य) मोहित हैं (भ्रम में है)। इस कारण ( इन तीनों गुणों से ऊपर उठकर वह ) मुझ महान (और) अविनाशी (ईश्वर को) नहीं जान पाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.14 View

नि:संदेह मेरे द्वारा बनाई गई ) इन दिव्य गुणों ( पर आधारित) मेरे परीक्षा को पार करना बहुत कठिन है। (किन्तु) जो लोग मेरी शरण में आ जाते है वह इस परीक्षा को नि:संदेह पार कर जाते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.15 View

(इस दिव्य ज्ञान पर आधारित) परीक्षा ( से पार कराने वाले) दिव्य ज्ञान को असुर (शैतानी / राक्षसी) स्वभाव अपनाने वालों से असुर (शैतान) ने अपहरण कर लिया है (भुला दिया है)। (कारण के यह) मूर्ख दुष्कर्म करने वाले, नरक में गिरने वाले, यह मनुष्य मेरी शरण नहीं लेते (मेरी प्रार्थना नहीं करते ) ।

भगवद गीता - श्लोक 7.16 View

हे भारत में श्रेष्ठ (अर्जुन)! सत्कर्म करने वालों में केवल चार प्रकार के मनुष्य, मुझ में श्रद्धा रखते हैं (मेरी प्रार्थना करते हैं)। वह जो कष्ट में हैं। वह जिसे मुझे जानने की जिज्ञासा है (इच्छा है)। वह जिसे धन और संपत्ती चाहिए। (और) वह जो ज्ञानी हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.17 View

इन (चारों में) (वह जो) ज्ञानी (है) वह सदैव मेरी प्रार्थना में लगा रहता है। (और मुझ) एक ईश्वर की ही भक्ति करता है। वह श्रेष्ठ है, क्योंकि उस ज्ञानी को मैं बहुत ही प्रिय हूँ, और वह भी मुझे (बहुत) प्रिय है।

भगवद गीता - श्लोक 7.18 View

नि:संदेह यह सब (यह चारों) आदरणीय हैं किन्तु ज्ञानी (का) मन (पवित्र है इसलिए वह सबसे श्रेष्ठ है)। और इस कारण भी कि वह दृढता से मेरे आदेश का पालन करता है, सदैव मेरी प्रार्थना में लगा रहता है। निःसंदेह यही मनुष्य का सबसे उच्चतम जीवन का उद्देश होना चाहिए।

भगवद गीता - श्लोक 7.19 View

इस तरह मृत्यु तक सारे कर्मों को (केवल) मेरे सहारे पर करने वाले कृष्ण के जैसे बहुत सारे जन्म लेने वाले ज्ञानियों में अत्यंत दुर्लभ है।

भगवद गीता - श्लोक 7.20 View

(केवल) अपनी इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास में जो लोग ईश्वर के दिव्य ज्ञान से दूर हो गए हैं। (वह) दूसरे देवताओं की शरण लेते हैं (उनकी प्रार्थना करते हैं)। वह लोग स्वयम् देवताओं की प्रार्थना के नियम बनाते हैं। जैसे ईश्वर ने अपनी प्रार्थना के नियम बनाए हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.21 View

जो जो (देवताओं के) भक्त जिस जिस देवता में श्रद्धा रखते हैं और उनकी भक्ति की इच्छा करते हैं। मैं (ईश्वर) नि:संदेह उन (भक्तों के) श्रद्धा को उन देवताओं पर और दृढ़ कर देता हूँ।

भगवद गीता - श्लोक 7.22 View

वह (भक्त) उस (देवता की) पूरी श्रद्धा के साथ (अपनी इच्छाओं के पूरा होने) की अपेक्षा के साथ भक्ति करता है और उस (देवता से वह) अपनी इच्छा की वस्तु प्राप्त भी कर लेता है, किन्तु (सत्य यह है कि) उसे मेरे द्वारा ही (उसके इच्छा की सारी वस्तुएँ) दी जाती हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.23 View

मेरी प्रार्थना करने वाले (मृत्यु के बाद) नि:संदेह मेरे (स्वर्ग में) जाएंगे। देवताओं की प्रार्थना करने वाले देवताओं के पास जाऐंगे। (किन्तु) उनके कर्म-फल के कारण उन कम बुद्धि वालों का विनाश होगा।

भगवद गीता - श्लोक 7.24 View

मेरे महान और सबसे श्रेष्ठ अविनाशी भाव को न जानते हुए, बुद्धिहीन मनुष्य में (जो) अदृश्य (निर्गुण और निराकार हूँ) (मैंने) मनुष्य की तरह शरीर धारण कर लिया है, ऐसा मानते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.25 View

(इस पृथ्वी) लोक में, मैं (अपने) प्रकाश (तेज) को सारे लोगों को नहीं देखता। मेरा न दिखाई देना, यह मनुष्य की परीक्षा ( से संबंध रखता है)। में जन्म लेने वाला नहीं हूँ (और) अविनाशी हूँ (मुझे मृत्यू नहीं ) । इस सत्य को मूर्ख लोग नहीं जानते।

भगवद गीता - श्लोक 7.26 View

हे अर्जुन! मैं भुतकाल में जो हो चुका। वर्तमान काल में जो है और भविष्यकाल में जो होगा। (उन सबको) जानता हूँ। परन्तु मानवजाति मुझे तनिक सा भी नहीं जानती है। जिवन में चिन्ताओं का कारण :

भगवद गीता - श्लोक 7.27 View

हे अर्जुन! भ्रम (सत्य को न जानने के कारण ) (उन्नती और समृद्धी की) इच्छा (और असफलता और कष्ट) से द्वेष (जैसे) द्वन्द्व (Duality) (मन में) जन्म लेते हैं। हे अर्जुन! सारे लोग जन्म से ही इस भ्रम में ग्रस्त (मुबतिला) रहते हैं।

भगवद गीता - श्लोक 7.28 View

दृढता से जो मुझ पर श्रद्धा रखते हैं (मेरी प्रार्थना करते हैं) और जिनके पाप पुण्य कर्मों के कारण नष्ट हो गए हैं। वह लोग द्वन्द्व और भ्रम से मुक्त होते हैं। द्वन्द्व का अर्थ है Dualities या सुख से प्रेम और से दुख:को नापसन्द करना।

भगवद गीता - श्लोक 7.29 View

जो प्रयास करते हैं मेरे शरण में आने की। वह छुटकारा पाते हैं बुढापे (और) मृत्यु से (अर्थात वह स्वर्ग पाते हैं जहाँ बुढापा और मृत्यु नहीं है)। वह उस ईश्वर को भी पहचानते हैं और पूरी तर (उन) सभी सत्कर्मों को भी जानते हैं जिससे आध्यात्मिक सफलता मिलती है। (अर्थात ईश्वर की कृपा और प्रसन्नता मिलती है)।

भगवद गीता - श्लोक 7.30 View

जो मुझे सारे प्राणियों का ईश्वर। सारे देवताओं का ईश्वर, और वह ईश्वर केवल जिसके लिए प्रार्थनाएं की जाती हैं ऐसा समझता है। उसके मन में ईश्वर की पूर्ण श्रद्धा है। वह मृत्यु के समय भी मुझे (ही) जानता है (मेरा ही नाम लेता है)