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अध्याय 10 ,श्लोक 41



श्लोक

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥41॥

यत् यत् विभूति मत् सत्वम् श्रीमत् उर्जितम् एव वा।
तत् तत् एव अवगच्छ त्वम् मम तेजः अंश सम्भवम् ।।४१।।

शब्दार्थ

(यत्-यत्) (संसार में) जो जो (विभूति मत्) दिव्य रचनाऐं या समृद्धि (ऊर्जितम्) ऊर्जा (या ज्ञान) (वा) या (श्री मत्) सुख शान्ति (और) (सत्त्वम् ) मानवता (सच्चाई) (मत्) मानी जाती है। ( एवं ) नि:संदेह (तत् तत् ) उन सबको ( त्वम्) तुम (मम) मेरे ( तेजः अंश ) तेज के अंश से (सम्भवम्) उत्पन्न हुई है ऐसा (अवगच्छ) समझो।

अनुवाद

संसार में जो जो दिव्य रचनाऐं या समृद्धि, ऊर्जा (या ज्ञान) या सुख शान्ति (और) मानवता सच्चाई मानी जाती है। नि:संदेह उन सबको तुम मेरे तेज के अंश से उत्पन्न हुई है ऐसा समझो।