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अध्याय 10 ,श्लोक 7



श्लोक

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥7॥

एवम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकल्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ।।७।।

शब्दार्थ

(यः) जो (व्यक्ति) ( एवम् ) इन सब (विभूतिम्) (मेरी) महानता की निशानी में (योगम्) चिंतन करता है (मम ) (वह) मुझे (वेत्ति) जान लेता है (सः) वह व्यक्ति (तत्त्वतः) सत्य (को भी) (अविकल्पेन) पहचान लेता है (योगम्) (फिर मेरी) प्रार्थना (में) (युज्यते) लग जाता है। (अत्र) इस बात में (संशय) कोई संशय नहीं है।

अनुवाद

जो (व्यक्ति) इन सब (मेरी) महानता की निशानी में चिंतन करता है। वह मुझे जान लेता है । वह व्यक्ति सत्य को भी पहचान लेता है फिर मेरी प्रार्थना में लग जाता है। इस बात में कोई संशय नहीं है। “(ईश्वर की महानता की निशानी मनुष्य में बीस प्रकार की भावनाएँ हैं। और मनुष्य का मनुष्य को जन्म देना है। जिनका वर्णन पिछले दो श्लोकों में हुआ है।)"