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अध्याय 11 ,श्लोक 17



श्लोक

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं
समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥17॥

किरीटिनम् गदिनम् चक्रिणम् च तेजः राशिम् सर्वतः दीप्ति-मन्तम् । पश्यामि त्वाम् दुर्निरीक्ष्यम् समन्तात् दीप्त अनल अर्क द्युतिम् अप्रमेयम् ।। १७ ।।

शब्दार्थ

(हे ईश्वर में) (किरीटिनम्) मुकुट (के समान) (दीप्ति-मन्तम् ) चमकते हुए (गदिनम् ) धूमकेतु (चक्रिणम्) घूमती हुई आकाशगंगा (राशिम्) (और) सितारों (को) (सर्वतः) हर तरफ (देख रहा हूँ) ( त्वाम्) (हे ईश्वर मैं) आपके (अप्रमेयम्) अनंत (तेजः) तेज को ( समन्तात् ) हर दिशा में (पश्यामि ) देख रहा हूँ (जैसे) (दीप्त-अनल) भड़कती आग (अर्क द्युतिम्) (जिसे) सूर्य के तेज (की तरह) (दुर्निरीक्ष्यम्) देखना कठिन है।

अनुवाद

हे ईश्वर मैं मुकुट के समान चमकते हुए धूमकेतु, घूमती हुई आकाशगंगा, और सितारों को हर तरफ देख रहा हूँ। हे ईश्वर मैं आपके अनंत तेज को हर दिशा में देख रहा हूँ। जैस भड़कती आग, जिसे सूर्य के तेज की तरह देखना कठिन है।

नोट

इस श्लोक में अर्जुन का घूमती हुई आकाशगंगा देखने का वर्णन है। द्वापरयुग में अपनी आंखों से घूमती आकाशगंगा को देखना एक चमत्कार है और इस पुस्तक का ईश्वर की ओर से अवतरित होने का प्रमाण है।