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अध्याय 11 ,श्लोक 33



श्लोक

तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||33||

तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ यशः लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यम् समृद्धम् । मया एव एते निहताः पूर्वम् एव निमित्त मात्रम् भव सव्यसाचिन् ।।३३।।

शब्दार्थ

(तस्मात् ) इस कारण (सव्यसाचिन्) हे दोनों हाथों से बाण चलाने वाले (अर्जुन) (त्वम्) तुम (उत्तिष्ठ) उठो (शत्रून) शत्रु पर ( जित्वा ) विजय पाओ (लभस्व) और उससे लाभ प्राप्त करो (राज्यम्) (और प्राप्त होने वाले) राज्य से ( यश:) यश: (और) (समृद्धम् ) समृद्धि (भुङ्क्ष्व) भोगो (मात्रम् ) ( तुम) केवल (निमित्त) कारण (भव) बनो ( एवं) नि:संदेह (एते ) वह सब (मया ) मेरे ( द्वारा ही ) (निहताः) मार (पूर्वम्) दिए जाएंगे।

अनुवाद

इस कारण हे दोनों हाथों से बाण चलाने वाले अर्जुन तुम उठो, शत्रु पर विजय पाओ और उससे लाभ प्राप्त करो, (और प्राप्त होने वाले) राज्य से यश: और समृद्धि भोगो। तुम केवल कारण बनो, नि:संदेह! वह सब मेरे ( द्वारा ही) मार दिए जाएंगे।