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अध्याय 11 ,श्लोक 43



श्लोक

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥43॥

पिता असि लोकस्य चर अचरस्य त्वम् अस्य पूज्यः च गुरुः गरीयान् । न त्वत् समः अस्ति अभ्यधिकः कुतः अन्यः लोक त्रये अपि अप्रितम प्रभाव ।। ४३ ।।

शब्दार्थ

(त्वम्) (हे ईश्वर) आप (लोकस्य) इस ब्रह्माण्ड के (चर अचरस्य) जीवित और अजीवित (प्राणी और वस्तुओं) (पिता) (कि) रचना (निर्माण) करने वाले (अपि) हो (अस्य पूज्य:) (आप ही) प्रार्थना के योग्य हो (च) और (गुरुः) (आप ही) ज्ञान प्रदान करते है । (गरीयान् ) आप की महिमा महान है ( न त्वत् समः) आपके समान कोई नहीं (अप्रतिम प्रभाव) आपकी कोई मूर्ति नहीं और न आपको समझा जा सकता है। (लोक-त्रये) तीनों लोकों में (अन्यः) दूसरा कोई ( अभ्यधिक:) आपसे बढ़कर (कुतः) कैसे (हो सकता) (अस्ति) है?

अनुवाद

हे ईश्वर! आप इस ब्रह्माण्ड के जीवित और अजीवित प्राणी और वस्तुओं की रचना (निर्माण) करने वाले हो । आप ही प्रार्थना के योग्य हो, और आप ही ज्ञान प्रदान करते हैं। आप की महिमा महान है। आपके समान कोई नहीं। आपकी कोई मूर्ति नही, और न आपको समझा जा सकता है। तीनों लोकों में दूसरा कोई आपसे बढ़कर कैसे हो सकता है?