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अध्याय 11 ,श्लोक 45



श्लोक

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे। तदेव मे ।
दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ 45॥

अदृष्ट-पूर्वम् हृषितः अस्मि दृष्ट्वा भयेन च
प्रव्यथितम् मनः मे ।
तत् एरा मे दर्शय देव रुपम् प्रसीद देव-ईश जगत् निवास ।। ४५ ।।

शब्दार्थ

( उदृष्ट पूर्वम्) पहले जो कभी नहीं देखा गया (दुष्ट्वा) उन्हें देखकर (हृषितः) (मैं) प्रसन्न (अस्मि) हूँ (च) और (भयेन) (यम-राज के) भय से (मनः मे) मेरा मन (प्रव्यथितम्) व्याकुल भी है। (देव ईश) हे देवताओं के ईश्वर (जगत् निवास) सारे जग का सहारा (प्रसीद) मुझ पर कृपा करो (तत एवं) और उस (देव रुपम्) दिव्य रचनाओं को (मे) मुझे ( फिर से ) ( दर्शय ) दिखाइए।

अनुवाद

पहले जो कभी नहीं देखा गया उन्हें देखकर (मैं) प्रसन्न हूँ और (यम - राज के) भय से मेरा मन व्याकुल भी है। हे देवताओं के ईश्वर, सारे जग का सहारा, मुझ पर कृपा करो और उस दिव्य रचनाओं को मुझे फिर से दिखाइए ।