अर्जुन उवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥52॥
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया । शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥53॥
श्री भगवान उवाच सु-दुर्दशम् इदम् रुपम् दृष्टवान् असि यत् मम ।
देवाः अस्य कांक्षिणः ।। ५२ ।।
रुपस्य नित्यम् दर्शन न अहम् वेदैः न तपसा न दानेन न च इज्यजा।
शक्यः एवम् विधः द्रुष्टम् दृष्टवान् असि माम् यथा ।। ५३ ।।
(श्री भगवान उवाच) ईश्वर ने कहा (मम) मेरे (इदम् रुपम्) इन रचनाओं को या मेरे तेज को (यत्) जिसे (दृष्टवान असि) (तुमने) देखा है। (ऐसे) (सु-दुदर्श) देखना बहुत कठिन है। (देवा) देवता (अपि) भी (नित्यम्) सदैव (अस्य रुपस्य) (मेरे) इन रचनाओं को या तेज को (दर्शन कांक्षिणः) देखने की इच्छा करते हैं। (न वेदै) न वेदों के अभ्यास से (न तपसा) न तपस्या से (न दानेन) न दान देने से (च) और (न इज्यजा) न (घोर) प्रार्थना करने से (माम्) मुझे (एवम् विधः) इस तरह (दृष्टुम् ) देखना (शक्य) सम्भव है। (यथा) जिस तरह (दृष्टवान असि) तुमने देखा।
अनुवादईश्वर ने कहा मेरे इन रचनाओं को या मेरे तेज को जिसे (तुमने) देखा है, देखना बहुत कठिन है। देवता भी सदैव (मेरे ) इन रचनाओं को या तेज को देखने की इच्छा करते हैं। न वेदों के अभ्यास से न तपस्या से न दान देने से और न (घोर) प्रार्थना करने से मुझे इस तरह देखना सम्भव है। जिस तरह तुमने देखा।