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अध्याय 11 ,श्लोक 54



श्लोक

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ 54॥

भक्त्या तु अनन्यया शक्यः अहम् एवम् विधः अर्जुन।
ज्ञातुम् द्रष्टुम् च तत्त्वेन प्रवेष्टम् च परन्तप ।। ५४ ।।

शब्दार्थ

(अर्जुन) हे अर्जुन (तु) किन्तु (भक्त्या अनन्यया) (जो मनुष्य) अन्य शक्तियों की प्रार्थना नहीं करते (शक्यः) (उनके लिए यह ) सम्भव है कि (एवम-विधः) जिस तरह से (तुमने मेरे) (ज्ञातुम्) ज्ञान (च) और (तत्त्वेन) तत्त्व को (सत्य को) (द्रष्टुम् ) (अपनी आंखों) देखकर श्रद्धा अपनाया (अहम्) मैं (इसी प्रकार की श्रद्धा उनके हृदय में) (प्रवेष्टुम्) प्रवेश करा दूँ (उनकी हृदय में ईश्वर की दृढ श्रद्धा उत्पन्न कर दूँ)

अनुवाद

हे अर्जुन, किन्तु (जो मनुष्य) अन्य शक्तियों की प्रार्थना नहीं करते (उनके लिए यह ) सम्भव है। कि जिस तरह से (तुमने मेरे) ज्ञान और तत्त्व को (सत्य को) (अपनी आंखों) देखकर श्रद्धा अपनाया। मैं (इसी प्रकार की श्रद्धा उनके हृदय में) प्रवेश करा दूँ (उनकी हृदय में ईश्वर की दृढ श्रद्धा उत्पन्न कर दूँ)