Home Chapters About



अध्याय 13 ,श्लोक 16



श्लोक

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥16॥

बहिः अन्तः च भूतानाम् अचरम् चरम् एव च । सूक्ष्मत्वाम् तत् अविज्ञेयम् दूर-स्थम् च अन्तिके च तत् ।। १६ ।।

शब्दार्थ

(एरां) नि:संदेह (तत्) वह (ईश्वर) चरम् (हर) जीवित (च) और (अचरम्) अजीवित (भुतानाम्) प्राणियों के (बहिः) बाहर (च) और (अन्त) भीतर है (च) और (तत्) वह (सूक्ष्मत्वाम्) अत्यंत सूक्ष्म होने से (अविज्ञेयम्) जानने में नहीं आता (च) और (वह ईश्वर) (दूर स्थम्) दूर से दूर (च) तथा (अन्तिके) नजदीक से नज़दीक भी है।

अनुवाद

निःसंदेह, वह (ईश्वर) जीवित और अजीवित प्राणियों के बाहर और भीतर है और वह अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण जानने में नहीं आता और (वह ईश्वर) दूर से दूर तथा नजदीक से नज़दीक भी है।