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अध्याय 13 ,श्लोक 27



श्लोक

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्। क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥27॥

यावत् सज्जायते किन्चित् सत्वम् स्थावर जडमम् । क्षेत्र क्षेत्र ज्ञ संयोगात् तत् विद्धि भरत ऋषभ ।।२७।।

शब्दार्थ

(यावत्) जो (किन्चित्) कुछ भी (सज्जायते) अस्तित्व में आ रहा है (सत्वम्) इस ब्रह्माण्ड में (स्थावर) रुकी हुई (अजीवित) (जडमम्) (या) गतिशील (जीवित) (भरतः ऋषभ) हे भरत वंशियो में श्रेष्ठ (अर्जुन) (विद्धि) इस सत्य को जान लो कि (तत्) वह (क्षेत्र) मनुष्य (क्षेत्र-ज्ञ) और ईश्वर के (संयोगात) संयोग से (एक साथ मिलने से है)

अनुवाद

जो भी अस्तित्व में आ रहा है, इस ब्रह्माण्ड कुछ में, रुकी हुई (अजीवित) (या) गतिशील (जीवित), हे भरत वंशियो में श्रेष्ठ (अर्जुन) ! इस सत्य को जान लो कि वह मनुष्य और ईश्वर के संयोग से ( एक साथ मिलने से है )

नोट

ईश्वर को मनुष्य की रचना करना था तो ब्रह्माण्ड बनाया। अन्न देना था तो पृथ्वी पर वर्षा की, पेड पौधा उगाए। मारना होता है तो भुकंप आता है। इस तरह इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ होता है वह ईश्वर द्वारा मनुष्य के लिए ही किया जाता है।)