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अध्याय 14 ,श्लोक 27



श्लोक

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥27॥

ब्रह्मणः हि प्रतिष्ठा अहम् अमृतस्य अव्ययस्य य ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्य ऐकान्तिकस्य च ।।२७।।

शब्दार्थ

(ईश्वर ने कहा), (अहम्) मैं (ने ही) (प्रतिष्ट) स्थापना किया है (ब्रह्मण:) इस ब्रह्मांड का (च) और (अव्ययस्य) अमर स्थान (स्वर्ग) (अमृतस्य) जहाँ मृत्यु नहीं होगी (च) और (शाश्वतस्य) सदैव स्थित रहने वाले (धर्मस्य) सनातन धर्म का (सुखस्य) और समाज में सुख शांति का (च) और (ऐकान्तिकस्य) (मैं) एक ईश्वर ही आरम्भ और अन्त हूँ, (मेरे अतिरिक्त और कोई ईश्वर नहीं है।)

अनुवाद

मैं (ने ही) स्थापना किया है इस ब्रह्मांड का और अमर स्थान (स्वर्ग का) जहाँ मृत्यु नहीं होगी। और सदैव स्थित रहने वाले सनातन धर्म का। और समाज में सुख शांति का और (मैं) एक ईश्वर ही आरम्भ और अन्त हूँ, (मेरे अतिरिक्त और कोई ईश्वर नहीं है।)